Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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गाभा १६५
कायमागंगा/२६१
___ समाधान - अंगुल के असंख्यातवें भाग में असंख्यातगुणी वृद्धि होने पर पूर्व की अपेक्षा प्रमाण में वृद्धि होती है, तथापि असंख्यात से गुणा करने पर जो लब्ध प्राप्त होता है, उसका प्रमाग भी अंगुल का असंख्यातवा भाग ही होता है। जैसे ४ संख्या १०० संख्या का संग्च्यातवा भाग है। चार को संख्यात (५) से गुणा करने पर भी जो संख्या (४४५ - २०) प्राप्त होती है, वह भी १०० संख्या का संख्यातवाँ भाग है।
जो बादर शरीर हैं वे अन्य के प्राधार से रहते हैं, जैसे बादर जीव वातवलय के, पाठ पृथिवियों के तथा विमान पटलों के आश्चय से रहते हैं;' जिससे बे नीचे न गिर जावें। और जो सूक्ष्म शरीर हैं वे जल, स्थल ग्रादि में अर्थात् लोकाकाश में सर्वत्र पाये जाते हैं, क्योंकि वे व्याघात से रहित हैं। वादर जीब लोक के एकदेश में रहते हैं परन्तु लोक का एक प्रदेश भी सूक्ष्म जीवों से रहित
शङ्का । यदि सूक्ष्म जीवों का शरीर ध्याघात से रहित है तो वे लोकाकाश के बाहर क्यों नहीं पाये जाते।
समाधान–जहाँ तक धर्मास्तिकाय है वहाँ तक हो जीव-पुद्गलों का गमन पाया जाता है । गमन में बाह्य सहकारीकारण धर्मास्तिकाय का अभाव होने से लोकाकाश के बाहर जीव-पुद्गलों का गमन सम्भव नहीं है।
तेरह गाथानों द्वारा वनस्पति स्थावर काय का कथन उवये दु वरणफदिकम्मस्स य जीवा वरणफदि होति ।
पत्तेयं सामपणं पदिद्विविवरेत्ति पत्तेयं ॥१८॥ गाथार्थ-- वनस्पति कर्मोदय से जीव वनस्पति होता है। वह वनस्पति प्रत्येक और सामान्य (साधारण) के भेद से दो प्रकार की होती है। प्रत्येक वनस्पति भी दो प्रकार की होती है... प्रतिष्ठित प्रत्येक वनस्पति और अप्रतिष्ठित प्रत्येक वनस्पति ।।१८५॥
विशेषार्थ-स्थावर नामकर्म के उत्तर भेद पाँच हैं। पृथिवी, अय् (जल), तेज (अग्नि), वायु और वनस्पति । इन पाँचों में से बनस्पति स्थावर नाम कर्मोदय से जीव बनस्पतिकायिक होता है। जिनके प्रत्येकशरीर नामकर्मादय से प्रत्येकशरीर होता है वे प्रत्येकवनस्पति हैं। जिनका प्रत्येक अर्थात् पृथक्-पृथक् शरीर होता है वे प्रत्येकशरीर जीव हैं जैसे खैर आदि वनस्पति । एक जीव के एक शरीर होता है।
शङ्का--प्रत्येक शरीर का इस प्रकार लक्षण करने पर पृथिवीकाय प्रादि पांचों स्थावरों के शरीरों की भी प्रत्येक शरीर संज्ञा प्राप्त हो जाती है।
१व २. मूलाचार पर्याप्त्यधिकार १२ गा. १६१ की टीका पृ. २८२। ३. लोकालोकावच्छेदको धमधिचिव गतिस्थिति हेतू मन्तव्याविति ।। पंचास्तिकाय गाथा ६३ की टीका। तह्मा घम्माधम्मागमरण द्विदिकारणारिण गासं । इदि जिगणवरेहि भागदं लोगसहावं सांगताणं ।। पं.का.गाथा || ४. "प्रत्येक पृथकशरीरं येषां ते प्रत्येक शरीगः।" [घवन पु. १ पृ. २६८ ५. "एकम्य जीवस्य एक शारीरमित्यर्थः ।" [श्री अभयचन्द्राचार्य कृत टीका]।