Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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गाथा १७८-१०
इन्द्रियमार्गणा २४६ विशेषार्थ-प्रतरगंगुल के असंख्यातवें भाग से जगत्प्रतर को भाजित करने पर द्वीन्द्रिय, श्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय जीवों का प्रमाण प्राप्त होता है। किन्तु द्वीन्द्रिय जीवों के प्रमाण से त्रोन्द्रिय जीवों का प्रमाण हीन है और त्रीन्द्रिय जीवों के प्रमाण से चतुरिन्द्रिय जीवों का प्रमाण हीन है। चतुरिन्द्रिय जीवों के प्रमाण से पंचेन्द्रिय जीवों का प्रमाण हीन है। इस प्रकार ये क्रम से हीन हैं। इसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है-पावली के असंख्यातवें भाग से प्रतर अंगुल को भाग देने पर जो लब्ध प्राप्त हो, उससे जगत्प्रतर को भाग देने पर उस राशि का प्रमाण प्राप्त होता है। उस स राशि प्रमाण को माबली के असंख्यातवें भाग से भाजित कर एक भाग को पृथक् स्थापित करके, बहुभाग के चार सम खण्ड करके, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय इन चारों को हीन अधिकता से रहित एक-एक समखण्ड देना चाहिए। पृथक स्थापित एक भाग को पुन: प्रावली के असंख्यातवें भाग से खण्डित करके, बहुभाग कोहीन्द्रिय जीवराशि को देना चाहिए, क्योंकि इन चारों में द्वीन्द्रिय जीवराशि का प्रमाण सबसे अधिक है । शेष एक भाग को पुनः आवली के असंख्यातवें भाग से खण्डित कर बहुभाग त्रीन्द्रिय जीवराशि को देना चाहिए, क्योंकि अवशिष्ट श्रीन्द्रिय आदि तीन राशियों में श्रीन्द्रिय राशि अधिक है। शेष एक भाग को पुनः प्रावली के असंख्यातवें भाग से खण्डित कर बहुभाग चतुरिन्द्रिय जीवराशि को देना और शेष एक भाग पंचेन्द्रिय जीवराशि को देना चाहिए, क्योंकि पंचेन्द्रिय जीवराशि सबसे कम है। इन अपनी-अपनी देय राशियों के अपने-अपने समखण्डों में मिलने पर द्वोन्द्रिय आदि जीवों का प्रमाण प्राप्त होता है।
श्रीन्द्रिय पर्याप्त जीव, द्वीन्द्रिय पर्याप्त जीव, पंचेन्द्रिय पर्याप्त जीव और चतुरिन्द्रिय पर्याप्त जीवों का प्रमाण प्राप्त करने के लिए जगत्प्रतर को प्रतरांगुल के संख्यातवें भाग से खण्डित करना चाहिए। जो लब्ध प्राप्त हो उसको प्रावली के असंख्यातवे भाग से भाग देकर बहभाग के चार सम खण्ड कर एक-एक समखण्ड त्रीन्द्रिय पर्याप्त जीवों को, द्वीन्द्रिय पर्याप्त जीवों को, पंचेन्द्रिय पर्याप्त जीवों को और चतुरिन्द्रिय पर्याप्त जीवों को देना चाहिए। शेष एक भाग को प्रावली के असंख्यातवें भाग से भाजित कर बहुभाग श्रीन्द्रिय पर्याप्तकों के समस्खण्ड में मिलाना चाहिए। अबशेष एक भाग को पुनः प्रावली के असंख्यातवें भाग से भाजित कर बहुभाग द्वीन्द्रिय के समरखण्ड में मिलाना चाहिए। अवशेष एक खण्ड पुनः प्रावली के असंख्यातवें भाग से खण्डित कर बहुभाग पंचेन्द्रियपर्याप्त जीवों के समखण्ड में मिलाना चाहिए और शेष एक भाग चतुरिन्द्रिय पर्याप्त जीवों के समखण्ड में मिलाना चाहिए। इस प्रकार मिलाने से जो राशि उत्पन्न हो वह श्रीन्द्रिय पर्याप्त, द्वीन्द्रिय पयप्ति, पंचेन्द्रियपर्याप्त और चतुरिन्द्रिय पर्याप्त जीवों का प्रमाण प्राप्त होता है जो क्रम से हीन होता गया है । पर्याप्त जीवराशियों को अपनी सामान्यजीवराशियों में से घटाने पर अपर्याप्त जीवराशियों का प्रमाण प्राप्त हो जाता है । धबलग्रंथ में इस विषय का कथन इस प्रकार है-प्रतिभाग और भागहार ये दोनों
.( अंगुल
अंगुल एकार्थवाची शब्द हैं । अंगुल के असंख्यातवें भाग का बर्ग --
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(असंख्यातवाँ भाग असंख्यात वाँ भाग प्रतसंगुल )
- - पंचेन्द्रिय जीवों का प्रमाण लाने के लिए जगत्प्रतर का प्रतिभाग [ भाजक] है और . असंन्यातवाँ भाग)
१-२. सिद्धान्त चक्रवर्ती श्रीमदभयचन्द्रसूरि कृत टीकानुसार ।