Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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२४८/गो. सा. जीवकाण्ड
गाथा १७८-१८०
असंख्यात गुरगे हैं। असंख्यात लोक गुगणकार है। बादर-एकेन्द्रिय जीव बादर-एकेन्द्रिय-अपर्याप्त जीवों के प्रमाण से विशेष-अधिक है। बादर-एकेन्द्रिय-पर्याप्त जीवों का जितना प्रमाण है, उतने निष-अधिक हैं। सान्निय-गपत जीव बादर-एकेन्द्रियों के प्रमाण से असंख्यातगुणं हैं। असंख्यात लोक गुणकार हैं। एकेन्द्रिय अपर्याप्त जीव सूक्ष्म एकेन्द्रिय अपर्याप्तकों के प्रमाण से विशेष-अधिक हैं। वादर एकेन्द्रिय अपर्याप्तकों का जितना प्रमाण है तन्मात्र विशेष-अधिक है। सूक्ष्म-एकेन्द्रिय-पर्याप्तक जीव एकेन्द्रियभपर्याप्तक जीवों के प्रमाण से संख्यात गुरणे है। गुणकार संख्यात समय है। एकेन्द्रिय-अपर्याप्त जीव सूक्ष्म-एकेन्द्रिय पर्याप्तकों के प्रमाण से विशेष अधिक हैं। बादर-एकेन्द्रिय-पर्याप्तकों का जितना प्रमाण है उतने विशेष अधिक हैं। सूक्ष्म-एकेन्द्रिय जीव एकेन्द्रिय पर्याप्तक जीवों के प्रमाण से विशेष अधिक हैं । बादर-एकेन्द्रिय-पर्याप्तकों के प्रमाण से रहित सूक्ष्म-एकेन्द्रिय-पर्याप्तकों का जितना प्रमाण है तन्मात्र विशेष अधिक है। एकेन्द्रिय जीव सूक्ष्मएकेन्द्रियों के प्रमाण से विशेष अधिक है। बादर-एकेन्द्रियों का जितना प्रमाण है उतने विशेष अधिक हैं।"
अङ्कसंदृष्टि-- एकेन्द्रियजीवराशि २५६ । सूक्ष्म-एकेन्द्रिय-जीवराशि २४० । बादरएकेन्द्रिय-जीवराशि १६ । सूक्ष्म-एकेन्द्रिय-पर्याप्त-जीवराशि १८० । सूक्ष्म-एकेन्द्रिय-अपर्याप्त जीवराशि ६०। बादर-एकेन्द्रिय-अपर्याप्त-जीबराशि १२ । बादर-एकेन्द्रिय-पर्याप्त-जीवराशि ४ । एकेन्द्रियअपर्याप्तक जीव ७२ । एकेन्द्रिय-पर्याप्तक १४ ।
बस जीवों की संख्या का प्रमाण बितिचपमाणमसंखेण वहिदपदरंगलेरण हिवपदरं । होगकम पडिभागो प्रावलियासंखभागो दु ॥१७॥ बहुभागो समभागो चउण्णमेदेसिमेषक भागल्छि । उत्तकमो तत्थबि बहुभागो बहुगस्स दे प्रो दु ॥१७॥ तिविपचपुण्णपमाणं पदरंगलसंखभागहिदपदरं ।
होगकम पुण्णूरगा वितिचपजीचा अपज्जता ॥१०॥ माथार्थ----असंन्यात से विभक्त प्रतरांगुल का जगत्प्रतर में भाग देने पर द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय जीवों की संख्या का प्रमाण प्राप्त होता है। परन्तु द्वीन्द्रियादि पूर्व-एवं की अपेक्षा श्रीन्द्रिय-आदि उत्तर-उत्तर का प्रमाण क्रम से हीन होता गया है। इसका प्रतिभाग पावली का असंख्यातवाँभाग है।।१७८॥ बहभाग के चार समान खण्ड करके एक-एक खण्ड उक्त क्रम से एक-एक राशि को देना चाहिए। अप एक भाग में से बहभाग बहत संख्या वाले को देना, ऐसे अन्त तक करना चाहिए ।।१७६।। प्रतरांगुन के संख्यातवें भाग से जगत्प्रतरको खण्डित करने पर द्वीन्द्रिय, बीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, पंचेन्द्रिय पर्याप्तकों का प्रमाण प्राप्त होता है जो कम से हीन है। द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय जीवों के प्रमाणों में से उन-उनके पर्याप्तकों का प्रमाण कम कर देने पर शेष अपर्याप्तकों का प्रमाण प्राप्त हो जाता है ।।१०।।
१. धवल पु. ३ पृ. ३२४-३२५। २, पवन पु. ३ पृ. ३२०-२१ ।