Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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गाथा १८२
काय मार्गगा/२५३
- उन पांच में से पृथ्वी काय जलकाय और वनस्पतिकाय ये तीन तो स्थावर हैं, अग्निकाय और वायुका ये दो स हैं। पृथ्वी, जल, वनस्पति, अग्नि, बायु ये पाँचों ही मनपरिणाम से रहित हैं और एकेन्द्रिय भी हैं।
समाधान- नहीं, क्योंकि उक्त प्रागमसूत्र है ऐसा निर्णय नहीं हुआ है। दूसरे इस आगम का द्वादशांग के सूत्र से विरोध श्राता है।
शङ्का - वह सूत्र कौनसा है ?
समाधान- 'तरूकाइया वोइंदिय- पहूडि जाव जोगिकेवलिति । 9 हीन्द्रिय से आदि लेकर प्रयोगकेवली तक उस जीव होते हैं । पारिशेष न्याय से इसी सूत्र के द्वारा यह जाना जाता है कि एकेन्द्रिय जोत्र स्थावर है । उक्त आगम में भी अग्निकायिक और वायुकायिक को एकेन्द्रिय कहा गया है अतः स नहीं हो सकते किन्तु वे स्थावर हैं, ऐसा पारिशेष न्याय से सिद्ध हो जाता है।
स्थानशील स्थावर होते हैं, यह निरुक्ति की तरह प्रधानता से अर्थ का ग्रहण नहीं है स्थावर नामकर्मोदय के कारण स्थावर हैं। * कर लिया है वे त्रस है । "
।
व्युत्पत्ति मात्र ही है, इसमें 'गो' शब्द की व्युत्पत्ति पृथिवी - श्रप्-तेज वायु और वनस्पति ये पांचों ही नामकर्म के उदय से जिन्होंने त्रस पर्याय को प्राप्त
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शङ्का – 'त्रसी उद्वेगे' इस धातु से त्रस शब्द की उत्पत्ति हुई है। जिसका यह अर्थं होता है कि जो उद्विग्न अर्थात् भयभीत होकर भागते हैं, वे बस हैं ?
समाधान- नहीं, क्योंकि गर्भ में स्थित अण्डे में बन्द, मूच्छित और सोते हुए जीवों में उक्त लक्षण घटित नहीं होने से, उनके प्रसत्व का प्रसंग श्राजाएगा। इसलिए चलने और ठहरने की अपेक्षा त्रस और स्थावर नहीं समझने चाहिए । "
पृथिवी, अप्
तेज और वायु इन चारों के शरीर में वर्णादि चारों गुणों का सद्भाव पुढची प्राकते ऊबाऊ कस्मोव येण तत्थेव । विचक्कजुदो तारणं देहो हवे पियमा ।। १८२ ॥
गार्थ पृथिवी, पू (जल), तेज (अग्नि) और वायु इनका नामकर्मोदय से अपने-अपने योग्य वर्ग-रस गंध और स्पर्श युक्त बनता है ।। १८२ ।।
शरीर नियम से अपने-अपने
विशेषार्य-वैशेषिक की मान्यतानुसार पृथिवी, जल, अग्नि और बायु ये चार धातुएँ हैं, इनमें से पृथिवी में वर्ण-रस-गंध-स्पर्श चारों हैं, किन्तु जल में गंध नहीं है। अग्नि में गन्ध और रस इन दो
१. पटुखंडागम संत प्ररूपणा सूत्र ४४ । २. " के पुनः स्थावरा इति वेदेकेन्द्रिया: ।
परिशेषात् । " धवल पु. १ पृ. २७५-२७६]। स्थावराः स्थावरनामकर्मोदय जनित विशेषत्वात् ।" ६. धवल पू. १. २६६ ।
कथमनुक्तमवगम्यते
३. धवल पु. १ पृ. २६५-२६६ । ४. "एते पञ्चापि [घवल पु. १ पृ. २६५] । ५. धवल पु. १ पृ. २६६