Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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२५२/गो. सा. जीवकाण्ड
गाथा १८१
शङ्का -कामग काययोग अवस्था में योगरूप आत्म प्रवृत्ति से संचय को प्राप्त हए नोकर्म पुदगल पिण्ड का असत्व होने के कारण कार्मणकाय योग में स्थित जीव के 'काय' यह व्यपदेश नहीं बन मकता ?
समाधान-नोकर्म पुदगलपिण्ड के संचय के कारणभूत कर्म का कार्मण काययोग अवस्था में सद्भाव होने से, कार्मणकाययोग में स्थित जीव के 'काय' यह संज्ञा बन जाती है। कहा भी है--
अप्पप्पवृत्ति-संचिद-पोग्गल-पिंड वियाग कायो ति ।
सो जिणमदम्हिणिनो पुढवित्रकायादयो सो दो ॥६॥ योगरूप यात्मप्रवृत्ति से संचय को प्राप्त हुए आदारिकादि पुद्गल पिण्ड काय है। यह काय जिनमत में पृथिवीकाय आदि के भेद से छह प्रकार का कहा गया है और वे पृथिवी आदि छह काय सकाय और स्थावरकाय के भेद से दो प्रकार के होते हैं ।
पृथिवीरूप शरीर को पृथिवीकाय कहते हैं, वह जिनके पाया जाता है, उन जीवों को
पृथिवीकायिक कहते हैं।
शङ्का-पृथिवी कायिक का इस प्रकार लक्षण करने पर कार्मण काययोग में स्थित जीवों के पृथिवीकायिकपना नहीं बन सकता है ?
समाधान-यह बात नहीं है, जिस प्रकार जो कार्य अभी नहीं हुआ है, उसमें 'यह हो चुका' इस प्रकार का उपचार किया जाता है, उसी प्रकार कामणका योग में स्थित प्रथिवीकायिक जीवों के भी पृथिवीकायिक यह संज्ञा बन जाती है । अथवा जो जीव पृथिवीकायिक नामकामोदय के यशवर्ती हैं, उन्हें पृथिवीकायिक कहते हैं । इसी प्रकार जलकायिक प्रादि को भी जान लेना चाहिए।
शङ्का--पृथिबी आदि कर्म तो प्रसिद्ध हैं ?
समाधान--नहीं, क्योंकि पृथिवीकायिक आदि कार्य का होना अन्यथा बन नहीं सकता, इसलिए पृथिवीप्रादि नामकर्मों के अस्तित्व की सिद्धि हो जाती है।
शङ्काः-स्थानशील अर्थात् ठहरना ही जिनका स्वभाव है, वे स्थावर हैं, ऐसी व्याख्या के अनुसार स्थावरों का स्वरूप क्यों नहीं कहा ?
समाधान-नहीं, क्योंकि वैसा लक्षण मानने पर वायुकायिक, अग्निकायिक और जलकाय जीवों की एक देश से दूसरे देश में गति होने से उन्हें अस्थावरत्व का प्रसंग प्राप्त होगा ।
शङ्का-वायुकायिक और अग्निकायिक को अस्थावर-पना प्राप्त होता है तो होने दो, क्योंकि आगम में इनको अस कहा है।
प्रतिशङ्का-..बह कौनसा आगम है ? प्रतिशङ्का का उत्तर --वह आगम इस प्रकार है--
ति स्थावरतणुजोगा परिणलारणलकाइया य तेसु तसा ।
मरणपरिणामविरहिदा जीवा एइंविया या ।। १. धवल पु. १ पृ. १३८-१३६ । २. पंचास्तिकाय गा. १११ ।