Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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माथा १८२
कायमार्गरणा/२५७
जीव वायुजीव है। इस विषय में सिद्धान्तसारदीपक के अध्याय ११ का भी अवलोकन करना
चाहिए।
शा-इन चार भेदों में से कौनसे चेतन हैं और कौनसे अचेतन हैं ?
समाधान --आदि के दो भेद अचेतन हैं, निर्जीव हैं। शेष दो 'कायिक' न विग्रहगति स्थित जीव सचेतन हैं ।
शङ्का-दोनों सचेतनों में परस्पर क्या अन्तर है ?
समाधान-तीसरा भेद कायिकजीव तो शरीर सहित है और चौथा भेद जीव शरीर रहित है। शरीर सहित व शरीर रहित इन दोनों सचेतनों में यह अन्तर है।
शङ्का--दोनों अचेतनों में क्या अन्तर है?
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समाधान-प्रथम अचेतन भेद वर्तमान में जीवरहित होने के कारण अचेतन है किन्तु वह पृथिवी आदि जीवों की उत्पत्ति के लिए योनौ स्थान बना हुआ है । उसमें जीव जन्म ले सकता है, जीव के जन्म लेने पर वह सचेतन हो जाएगा । जैसे मार्ग में मर्दन की हुई धूलि जब तक मार्म चलता रहता है अचेतन है, किन्तु रात्रि में गमनागमन बन्द हो जाने से पृथिवी जीवों की उत्पत्ति हो जाती है और वह अचेतन धूलि सचेतन बन जाती है। किन्तु ईंट आदि पृथिवीकाय में पृथिवी जीव की उत्पत्ति नहीं हो सकती। इसी प्रकार प्रथम भेद विलोडित जल, दोहरे वस्त्र रूपी यंत्र द्वारा गालित जल' अथवा हाइड्रोजन ब आक्सीजन इन दो वायू से बना जल, अथवा चन्द्रकान्तमणि से उत्पन्न हृमा जल वर्तमान में अचेतन है किन्तु कालान्तर में जलकाय जीवों की उत्पत्ति हो जाने से वह सचेतन हो जाएगा किन्तु दूसरा भेद जलकाय रूप उष्ण जल है। अलकाय जीवों का योनि स्थान नष्ट हो जाने से उष्ण जल में जलकाय जीवों की पुनः उत्पत्ति नहीं होती। प्रचर भस्म से आच्छादित अग्नि अथवा विद्युत् रूप अग्नि अथवा सूर्यकान्त मरिण से उत्पन्न हुई अग्नि वर्तमान में अचेतन है किन्तु भस्म के हट जाने पर ब कालान्तर में इस प्रथम तेज भेद में अग्निजीव की उत्पत्ति होने से सचेतन हो जाते हैं। परन्तु दुसरा भेद अग्निकाय, जिसमें उष्णता दूर हो गई है ऐमी भस्म में अग्निकाय जीव उत्पन्न नहीं हो सकते। इस प्रकार प्रथम भेद संचेतन हो जाता है और दूसरा काय भेद सचेतन नहीं होता है. यही इन दोनों में भेद है। कालान्तर में सचेतन हो जाने के कारण प्रथम भेद किंचित् प्रारणाश्चित भी कहा गया है।
१. तत्त्वार्थवृत्ति २/१३ पृ. १४; मूलाचार (फलटन) पृ. १२१ । २. “चतुर्गामपि पृथिवीशब्दवाच्यत्वेऽपि शुद्धपुद्गल पृथिव्या , जीयपरित्यकधिवीकायस्य च नेह ग्रहण तयोर नेतनत्वेन तत्कर्मोदयासम्भवातस्कृतधिधीव्यपदेशासिद्धः। लम्जीवाधिकारात्पृथिवीकायत्वेनगृहीत्वतः पृथिवीकायिकरय विग्रहगत्यापनस्य पृथिवीजीवस्य ग्रहणं तमोरेब पृथिवीर श्रावग्नामकर्मोदयमद्रावात्पृथिवीन्यप देशघटनात् ।" (मुवानवोट का तत्वार्थ सूत्र २/१३] । ३. "एवं विलोहितं यत्रत विक्षिप्तं वस्त्रादिगालितं जलमाप उच्यते ।" [तत्त्वाचति २/१३] ; "मथ जलम्य प्रासुकावं कियकालमिति वर्गायन्ति-- मुहर्त गालितं तयं प्रासुर्फ प्रहरवयम् । उगोदकमहारानं ततः मम्मूच्छिम भदत् ।।२१।।" [श्रीशिवकोटियाचार्यप्रणीत रत्नमाला] ।