Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
View full book text
________________
२५० / मो. सा. जीवकाण्ड
गाया १०१
-----
( प्रतगंगुल } .. सूच्यं गूल के संध्यान भाग का बर्ग ------ पंचेन्द्रिय पर्याप्त जीवों का प्रमाण लाने के लिए
(संन्यातवाँ भाग) जगत्प्रतर का प्रतिभाग है। श्रावली के असंख्यातवें भाग में सूच्यंगुल को भाजित करने पर जो लब्ध प्राप्त
१. प्रतरागुल हो उसको वर्गित करने पर
जीवों का प्रवहारकाल[ = भाजक! "(पावली का असंख्यात. भाग होता है। द्वीन्द्रियों के अवहारकाल को प्रावली के असंख्यानवें भाग से भाजित करने पर जो लब्ध प्राप्त हो उसको उसी द्वीन्द्रियों के अवहारकाल में मिला देने पर हीन्द्रिय अपर्याप्त जीवों का अवहारकाल होता है। इस दोन्द्रिय अपर्याप्तकों के प्रवहार काल को प्रावली के असंख्यातवें भाग से भाजित करने पर जो लब्ध प्राप्त हो उसे उसी द्वीन्द्रिय-अपर्याप्त के अवहारकाल में मिला देने पर श्रीन्द्रिय जीवों का अबहारकाल होता है। इन त्रीन्द्रिय जीवों के अवहारकाल को प्रावली के असंख्यात भाग से भाजित करने पर जो लब्ध प्राप्त हो, उसको उसी अवहारकाल में मिला देने पर पोन्द्रिय अपर्याप्त जीवों का अवहारकाल होता है। इसी प्रकार चतुरिन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय-अपर्याप्तक, पंचेन्द्रिय और पंचेन्द्रिय अपर्याप्तक जीवों के अवहारकाल को क्रम से प्रावली के असंख्यातवें भाग से खण्डित करके उत्तरोत्तर एक-एक भाग से अधिक करना चाहिए। अनन्तर पंचेन्द्रिय अपर्याप्त जीवों के अवहारकाल को प्रावली के असंख्यातवें भाग से गुणित करने पर प्रतरांगुल के संख्यातवें भाग प्रमाण त्रीन्द्रिय पर्याप्तकों का अबहारकाल होता है। इसे पावली के असंख्यातवें भाग से भाजित कर जो लब्ध प्राप्त हो उसको उसी त्रीन्द्रिय पर्याप्तकों के अवहारकाल में मिला देने पर द्वीन्द्रिय पर्याप्तकों का अवहारकाल होता है। इस द्वीन्द्रिय-पर्याप्तकों के प्रवहारकाल को प्रावली के असंख्यातवें भाग से भाजित कर जो लब्ध प्राप्त हो उसको उसी द्वीन्द्रिय-पर्याप्तकों के अबहारकाल में मिला देने पर पंचेन्द्रिय-पर्याप्तकों का अबहारकाल होता है । पंचेन्द्रिय-पर्याप्तक जीवों के इस अवहारकाल को प्रावली के असंख्यातवें भाग से भाजित करने पर जो लब्ध प्राप्त हो उसको उसी पञ्चेन्द्रियपर्याप्त जीवों के प्रबहार काल में मिला देने पर चतुरिन्द्रिय पर्याप्त जीवों का अवहारकाल होता है। इन अवहारकालों से पृथक्-पृथक् जगत्प्रतर के भाजित करने पर अपने-अपने द्रव्य (जीवराशि) का प्रमाण आता है।'
उपर्युक्त सिद्धान्तचक्रवर्ती श्रीमद् अभयचन्द्रसुरि कृत टीका और अध्यात्मग्रन्थ धवल इन दोनों कथनों में मात्र विधि का अन्तर है। इन दोनों कथनों के अनुसार प्राप्त जीवराशियों के प्रमाण में अन्तर नहीं है ।
इस प्रकार गोम्मटसार जीवक्राण्ड में इन्द्रिय मार्गणा नामक साता अधिकार पूर्ण हुना।
८. कायमार्गरणा अधिकार जाईप्रविणाभावीतसथावरउदयजो हवे कानो । सो जिमदगि भरिणतो पुढवीकायादि छदमेग्रो ॥१८१॥
१. धवल पु. ३ पृ. ३१५-३१६ ।