Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
View full book text
________________
२४६/गो. सा. बीवकाण्ड
गाथा १७५ समाधान नहीं, क्योंकि विवक्षित राशि को प्रतिपक्ष भूत भव्यराशि का व्युच्छेद मान लेने पर अभव्यत्य की सत्ता के नाश का प्रसंग आ जाता है। अभव्यों का अभाव नहीं है, क्योंकि उनका अभाव होने पर संसारी जीवों का प्रभाव प्राप्त होता है। संसारी जीवों का अभाव होने पर असंसारी (मुक्त) जीवों के भी अभाव का प्रसंग आता है।
. शङ्का-संसारी जीवों का अभाव होने पर प्रसंसारी (मुक्त) जीवों का प्रभाव कैसे सम्भव है ?
समाधान-संमागे जीवों का अभाव होने पर प्रसंसारी (मुक्त) जीव भी नहीं हो सकते, क्योंकि सब पदार्थों की उपलब्धि सप्रतिपक्ष होती है। कहा भी है
सत्ता सम्पयत्था सविस्तरूवा प्रणंसपज्जाया।
भंगुष्पायधुक्त्ता सप्पडिवखा हवा एक्का ।।' सब पदार्थ सत्तारूप हैं, सविश्वरूप हैं, अनन्त पर्यायवाले हैं, व्यय-उत्पाद-ध्र व से युक्त हैं, सप्रतिपक्ष रूप हैं और एक हैं। इस प्रकार इस गाथा में 'सब्व पयत्या सप्पडिवक्खा' इन शब्दों द्वारा श्री कुन्दकुन्द प्राचार्य ने 'सर्व पदार्य सप्रतिपक्ष हैं। इस सिद्धान्त का उल्लेख किया है । जिसका उपयोग श्री वीरसेन प्राचार्य ने अनेक स्थलों पर किया है। इतना ही नहीं, किन्तु संसारी और असंसारी (मुक्त) जीवों का अभाव होने पर जीव मात्र का अभाव हो जायगा। जीव के प्रभाव हो जाने पर जीव के प्रतिपक्ष अजीव के अभाव का भी प्रसंग पाएगा। इस प्रकार भव्य जीवों का प्रभाव हो जाने पर समस्त द्रव्यों के प्रभाव का प्रसंग पा जाएगा, अत: मुक्त होते रहने पर भी निगोद एकेन्द्रिय राशि का कभी अन्त नहीं होगा। क्योंकि आय के बिना व्यय होते रहने पर भी जिस राशि का अन्त न हो वह राशि प्रयन्त है। निगोद राशि को छोड़कर शेष एकेन्द्रिय राशि प्रसंख्यातासंख्यात है।
द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय जीव तथा उन्हीं के पर्याप्त और अपर्याप्त जीव द्रव्य प्रमाण की अपेक्षा असंख्यात हैं। काल की अपेक्षा असंख्यात अवसपिणियों-उत्सपिरिणयों के द्वारा अपहुत होते हैं ।
'अपर्याप्त' शब्द से अपर्याप्त नामवार्म से युक्त जीवों का ग्रहगा होता है, अन्यथा 'पर्याप्त' नाम कर्म उदय से युक्त निवृत्त्यापर्याप्ति जीवों का भी ग्रहण हो जाएगा। इसी प्रकार 'पर्याप्ति' शब्द से पर्याप्ति नामकर्म के उदय से युक्त जीवों का ग्रहण होता है, अन्यथा पर्याप्त नामकर्म के उदय से युक्त नित्यपर्याप्त जीवों का ग्रहण नहीं होगा। द्वीन्दिय, पोन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय जाति नाम कर्म के उदय से युक्त हीन्द्रिय-त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय जीव हैं।'
___ शंका-जिन जीवों के दो इन्द्रियाँ पाई जाती हैं वे द्वीन्द्रिय जीव हैं ऐसा कहने में क्या दोप प्राता है ?
___ समाधान-नहीं, क्योंकि ऐमा अर्थ ग्रहण करने पर अपर्याप्त काल में विद्यमान जीवों के
१. धवल घु. ३ पृ. ३०६-३०७ । २. धवल पु. १४ पृ. २३४ । ३. धवल पु. १४ पृ. २३४, पंचास्तिकाय गा. ८ | ४. "जासि संवारणं प्रायविरहियारण संखेज्जा संखेज्जेहि बइज्जमाणाणं पि वोन्छेदो रण होदि तासि मणलमिदि सगा।' .पु. १४ पृ. २३५। ५. धवल पु. ३ पृ. २१० व २१२ सूत्र ७७-७८ । ६. घवल पु. ३ पृ. २११ ।