Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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२४४/गो. सा. जीवकाण्ड
गाथा १७५
शा-किस गुण के द्वारा अर्थ संज्ञा प्राप्त होती है ?
समाधान ..प्रमेयत्व गुण के द्वारा अर्थ संज्ञा प्राप्त होती है, क्योंकि प्रमाग के द्वारा जानने के योग्य जो स्व और पर स्वरूप है, वह प्रमेय है ।'
शङ्का—यह गुण किस के प्राधार रहता है ?
समाधान—यह गुण द्रव्य के प्राधार रहता है, क्योंकि जितने भी गुगा हैं वे सब द्रव्य के माश्रय से रहते हैं।
शङ्का---वर्तमान पर्याय को अर्थ संज्ञा कैसे प्राप्त हो सकती है, क्योंकि उसके ग्राश्रय प्रमेयत्व गुण नहीं है।
समाधान-वर्तमान पर्याय का द्रव्य के साथ तदात्म-सम्बन्ध होने के कारण वर्तमान पर्याय को अर्थसंज्ञा प्राप्त हो जाती है। कहा भी है--
परिणभदि जेरण दब्वं तत्कालं तम्मय त्ति एण्णत्त ।। जिस काल में द्रव्य जिस पर्याय रूप परिणमन करता है उस काल में वह द्रव्य उस पर्याय से तन्मय होता है। प्रतीत व अनागत पर्यायों से दव्य वर्तमान में मग नहीं होता हातः उनको अर्थ संज्ञा प्राप्त नहीं होती। वे तो प्रध्वंसाभाव और प्रागभाव रूप हैं, सद्भाव रूप नहीं हैं ।
शङ्कर नामानन्त आदि के भेद से अनन्त अनेक प्रकार का है उनमें से यहाँ पर किस अनन्त से प्रयोजन है ?
समाधान–यहाँ पर विनाश रहित अनन्न से प्रयोजन है। अन्त बिनाश को कहते हैं, जिसका अन्न अर्थात् विनाश नहीं होता, वह अनन्त है।
शङ्का-क्या सिद्धों में अनन्त ज्ञान अर्थात् केवलज्ञान और अनन्त मुख ये दो ही गुगा हैं ?
समाधान नहीं, क्योंकि केवल दर्शन, सम्यक्त्व , वीर्यादि गुण अनन्त ज्ञान व मुख के सहचारी हैं अत: उल्लेख के बिना भी शेष सब गुणों का ग्रहण हो जाता है। वे गुरण भी स्वाभाविक हैं ।
संक्षेप से एकेन्द्रिमादि जीवों की मन्या का कथन थावरसंखपिपीलियभमरमणुस्सादिगा समेदा जे ।
जुगवारमसंखेज्जाणतारणंता णिगोदभवा ।।१७५॥ गाथार्थ –स्थावर काय (साधारण वनस्पति के अतिरिक्त), शंख (द्वीन्द्रिय), पिपीलिका
१. 'प्रमाणेन स्त्रपररूपं परिकछेयं प्रमेयम् ।' [पालापपद्धति मूत्र ६८] । २. 'द्रध्यानया निगुणा गुरणतः ।' [तत्त्वार्थ सूत्र ५४१। ३. प्रवचनसार गा. ८। ४. "ग्रन्तो विनाणः, न विद्यते अन्तो यम्य तदनन्तम् ।" [धवल पु. ३ पृ.१५]। ५. सिद्धान्तचक्रवर्ती धीमदभयचन्द्र मुरि कृत टीका।