Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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२४२/गो. मा. जीवकागड़
गाथा १७१-१७३
सठ योजन और एक योजन के बीस भागों में से सात भाग; इतना लब्ध प्राप्त होता है। ४.७२६३३ योजन, यही चक्षुइन्द्रिय का उत्कृष्ट विषय है।
इन्द्रियों के प्राकार व प्रवगाहना का कैयन चक्खू सोदं घाणं जिम्भायारं मसूरजवरणाली । अतिमुत्तखुरप्पसमं फासं तु प्रणेयसंठाणं ॥१७१॥' अंगुलप्रसंखभागं सखज्जगुणं तदो बिसेसाहय । ततो असंखगुरिणदं अंगुलसंखेज्जयं तत्तु ।।१७२।। सुहमरिगगोव-अपज्जत्तयस्स जादस्स तदियसमयसि ।
अडगुलप्रसंखभागं जहरणमुक्कसयं मच्छे ॥१७३॥ गाथार्थ-चक्षु-इन्द्रिय का संस्थान अर्थात् आकार मसूर के समान है, श्रोत्र इन्द्रिय का प्राकार यवनाली के सदृश है । कदम्ब के फूल जैसा प्राकार घ्राण-इन्द्रिय का है । जिह्वा इन्द्रिय का प्राकार खरपे जैसा है । स्पर्शन-इन्द्रिय अनेक प्राकार वाली है ।।१७१॥ चक्षु-इन्द्रिय की अवगाहना अङ्गल के असंख्यातवें भाग है । इस से संख्यात गुरणी श्रोत्र-इन्द्रिय की अवगाहना है । उससे विशेष-अधिक घ्राण-इन्द्रिय की अवगाहना है । उससे असंख्यात गुणी जिह्वा इन्द्रिय की अवगाहना है फिर भी अङ्गुल के संख्यातवें भाग है ।। १७३।। सुक्ष्म निगोदिया लब्ध्यपर्याप्तक के उत्पन्न होने के तृतीय समय में अंगुल के असंख्यातवें भाग प्रमाण स्पर्शन-इन्द्रिय की जघन्य-अवगाहना होती है और मत्स्य के उत्कृष्ट अवगाहना होती है ।।१७३।।
विशेषार्थ-मसूर के समान ग्राकार वाली सौर घनांगुल के असंख्यातवें भाग प्रमारण चक्षु इन्द्रिय की वाह्य निर्ध त्ति होती है । यव को नाली के समान आकार वाली अंगृल के असंख्यातवें भाग प्रमारण श्रोत्र-इन्द्रिय की बाह्य निवृत्ति होती है। कदम्ब के फूल के समान आकार बाली और घनांगुल के असंख्यातवें भाग प्रमाण घ्राण इन्द्रिय की बाह्य-निईत्ति होती है। अर्ध-चन्द्र अथवा खुरपा के समान आकारवाली और घनांगुल के संख्यातवें भाग प्रभाग रमना-इन्द्रिय अर्थात् जिह्वा-इन्द्रिय को बाह्य निर्वृत्ति होती है। स्पर्शन-इन्द्रिय की बाह्य नित्ति अनियत श्राकार बाली होती हैं । वह जघन्य प्रमागा की अपेक्षा धनांगुल के असंख्यानवे भाग प्रभाग सूक्ष्म निगोदिया लबध्यअपर्याप्तक जीव के उत्पन्न होने के तृतीय समयवर्ती शरीर में होती है और उत्कृष्ट प्रमाण को अपेक्षा संख्यात धनांगुल प्रमाण महामत्स्य आदि अस जीवों के शरीर में होती है ।
चक्ष-इन्द्रिय की अवगाहना रूप प्रदेश सबसे स्तोक है। उनसे संव्यातगुणे श्रोत्र इन्द्रिय के प्रदेश हैं । अर्थात् चक्षुइन्द्रिय अपनी अवगाहना से जितने प्रानाशप्रदेशो को व्याप्त करती है उससे संख्यातगणे आकाश प्रदेशों को व्याप्त कार थोत्र-इन्द्रिय रहती है। उससे विशेष अधिक प्राकाश
१, पह गाथा धवन पू. १ प्र. २३६ : प्रा. प. सं. पृ. १४ मा. ६६; मुलाचार पर्याप्यधिकार १२ गा. ५० है किन्तु शब्दभेद है। २. यह गाथा मूलाचार पर्याप्त्यविकार १२ गाथा ४७ है किन्तु उत्तरार्ध में शब्दभेद है। ३. प्रा. प.सं. १/६६। ४. धवल पु.१५. २३४-२६५ ।