Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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२४० गो, सा. जीवकाण्ड
गाथा १६६-१७० पर उत्पन्न हुए शब्द को प्रसंगी पंचेन्द्रिय जीव श्रोत्रेन्द्रिय द्वारा जानता है। पुद्गल द्रव्य का अर्थात् मूर्त द्रव्य का विशिष्ट संस्थान अथवा महत्त्व, वर्णादिक प्रगट होना पुद्गल द्रव्य का परिणमन है। सूर्यबिम्ब आदि पुद्गल द्रव्य के परिणमन हैं और वे विशिष्ट इन्द्रियों के द्वारा ग्रहण किये जाते हैं।'
संज्ञी पंचेन्द्रिय जीव का इन्द्रिय-विषय-क्षेत्र सणिस्स वार सोदे तिण्हं गय जोयगारिए चक्खुस्स। सत्तेतालसहस्सा
वेसदतेसट्ठिमदिरेया ॥१६६।। गाथार्थ - संज्ञी पंचेन्द्रिय जीब के थोत्र-इन्द्रिय का विषय-क्षेत्र बारह योजन है। तीन इन्द्रियों का विषय-क्षेत्र नब-नब योजन है। चक्षुरिन्द्रिय का विषयक्षेत्र कुछ अधिक संतालीस हजार दो सौ तरेसठ योजन है ।। १६६॥
विशेषार्थ-इस सम्बन्ध में थवल पु. ६ पृ. १५८ पर तथा मूलाचार पर्याप्त्यधिकार १२ पृ. २१२-२१३ पर ये गाथाएँ हैं
पासे रसे य गंधे विसनो एव जोयसा मुणेयध्वा । बारह ओयण सोदे चबुस्सु पक्खामि ॥५२॥ सत्तेतालसहस्सा वे वेव सया हवंति तेक्वा ।
चक्विवियस्स विसनो उपकस्सो होदि अधिरित्तो ॥५३॥ संज्ञी पंचेन्द्रिय जीव के स्पर्श, रस व गन्धविषयक क्षेत्र नौ योजन प्रमाण तथा श्रोत्र का - बारह योजन प्रमाण है, चक्षु-इन्द्रिय का उत्कृष्ट विषय सैतालीस हजार दो सौ प्रेसठ योजन से कुछ । अधिक है।
जिनके इन्द्रियों का क्षयोपशम अतिशय तीव्र है ऐसे चक्रवर्ती प्रादि संनी पंचेन्द्रिय जीवों के नत्र योजन दुर तक स्पर्शन-इन्द्रिय के द्वारा स्पर्श का, रसनेन्द्रिय द्वारा रस का, प्राणेन्द्रिय द्वारा गन्ध का ज्ञान होता है और श्रोत्र-इन्द्रिय द्वारा बारह योजन दूर पर स्थित शब्द का ज्ञान होता है। चक्षुरिन्द्रियावरण के तीय क्षयोपशम वाले संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त चक्रवर्ती आदि चक्षु-इन्द्रिय के द्वारा संतालीस हजार दो सौ रेसठ योजन से कुछ अधिक (* योजन अधिक) अर्थात् एक कोस, बारह सौ पन्द्रह दंड (धनुष), एक हाथ, दो अंगुल कुछ अधिक यब के चतुर्थभाग दूर पर स्थित पदार्थ को जानते हैं।
___क्षु इन्द्रिय के उत्कृष्ट विषयक्षेत्र की सिद्धि तिम्सियसद्धिविरहिदलक्खं बसमूलताडिदे मूलं ।
रणवगुरिणदे सहिहिदे चक्खप्फासस्स प्रद्धाणं ॥१७॥ १. मूलाचार पर्याप्त्यधिकार १२ गा. ५४ की संस्कृत टीका पृ. २१२ । २. घबल पु. ६ पृ. १५८ | मूलाचार पर्याप्त्यधिकार १२ पृ. २१२ पर गाथा ५५ व मूलाचार (फलटन से प्रकाशित) पृ. ५६४ पर मा. १०६ है किन्तु उत्तरार्च में कुछ शब्दभेद है। ३. श्रवल पु.६ पृ. १५८ । मूलाचार पर्याप्त्यधिकार १२ पृ. २१३ पर माथा ५६ तथा मूलाचार (फलटन) पृ. ५६५ पर गा. १०८ है। ४. मूलाचार उपमुक्त गाथानों की श्रीवसुनन्दि माचार्यकृत संस्कृत टीका। ५. मूलाचार (फलटन) पृ. ५६५ पर गाया १०६ इसी प्रकार है ।