Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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गाथा १६८
इद्रियमार्गरपा/२३६
१२८ धनुष, चतुरिन्द्रिय जीव के २५६ धनुष और असंज्ञी पंचेन्द्रियजीव के ५१२ धनुष प्रमाण है। श्रीन्द्रियजीव के प्राण इन्द्रिय का उत्कृष्ट विषयक्षेत्र १०० धनुष, पतुरिन्द्रियजीव के २०० धनुष तथा असंजी पञ्चेन्द्रियजीव के ४०० धनुष प्रमाण है। चतुरिन्द्रियजीव के चक्ष इन्द्रिय का उत्कृष्ट विषयक्षेत्र २६५४ योजन और असंज्ञी पंचेन्द्रिय जीव के ५६०८ योजनप्रमाण है। असंजी पंतेन्द्रियजीव के श्रोत्र-इन्द्रिय का उत्कृष्ट विषयक्षेत्र ८००० धनुष प्रमाण है।' इस प्रकार पुद्गलपरिणामयोग से ये विषयक्षेत्र जानने चाहिए। एकेन्द्रियादि जीव अपनी-अपनी उत्कृष्ट शक्ति से युक्त स्पर्शनादि इन्द्रियों के उक्त प्रमाणानुसार दूर स्थित पदार्थों को विषय करते हैं।
शङ्खा - इतनी दूर तक स्थित स्पर्श, रस, गन्ध आदि विषयों को ये इन्द्रियाँ ग्रहण नहीं कर सकती हैं, क्योंकि ये इन्द्रियाँ प्राप्त अर्थ को ग्रहण करती हैं ?
समाधान-ऐसी शङ्का ठीक नहीं है, क्योंकि इन्द्रियों का बिना प्राप्त किये अर्थ को ग्रहण करना सिद्ध है। युक्ति तथा आगम से इन इन्द्रियों का प्राप्त किये बिना अर्थ को ग्रहण करना विरुद्ध नहीं है।
शङ्का-- बह युक्ति क्या है ?
समाधान · एकेन्द्रियजीव पाद अर्थात जड़ को फैलाने से दूर स्थित वस्तु को भी जान लेते हैं अर्थात् जिस दिशा में सुवर्ण आदि वस्तुएं गड़ी हुई हैं उधर ही एकेन्द्रिय वनस्पति जीव अपनी जड़ फैला देते हैं तथा वस्तु युक्त प्रदेश में नाल-शिरात्रों को फैला देते हैं। आगम में भी स्पर्शन आदि इन्द्रियों को अप्राप्तग्राही माना गया है, क्योंकि स्पर्शन आदि युक्त मतिज्ञान के ३३६ भेद कहे गए हैं।
चतुरिन्द्रियजीव २६५४ योजन दूर स्थित पदार्थों को अपनी आंखों से देख सकता है, इसमें कोई सन्देह नहीं है। स्पर्शमादि इन्द्रियाँ तो प्राप्तग्राही हैं, किन्तु चक्षुरिन्द्रिय प्राप्तग्राही नहीं है, अन्यथा अपने में स्थित अंजन आदि को भी जानने में समर्थ होती । चक्षुरिन्द्रिय पदार्थ के पास जाकर उसे नहीं जानती, अन्यथा अाँख का प्रदेश चक्षुरहित हो जाता। ज्ञानरूपीचक्षु पदार्थ के पास जाता है ऐसा भी मानना युक्तिसंगत नहीं है, ऐसा मानने से प्रात्मा अज्ञ हो जाएगा। आँख क्रम से अपनो विषयभूत वस्तु के पास जाती है, ऐसा भी नहीं है, क्योंकि ऐसा मानने से बीच के सभी पदार्थों के ज्ञान होने का प्रसंग पाएगा। अत: वश्च अप्राप्तार्थवाही ही है, स्पर्शनादि इन्द्रियों के समान प्राप्तार्थग्राही नहीं है।
शिक्षा पालाप आदि के ज्ञान से रहित असंज्ञी पंचेन्द्रिय जीव ५६०८ योजन दूर पर स्थित चक्षुविषय रूप को चक्षुरिन्द्रिय द्वारा जानता है अतः प्रसंज्ञी पंचेन्द्रिय के चक्षुरिन्द्रियविषय ५६०८ योजन है। (मूला. पर्याप्ति अधिकार गाथा ५३ की टीका)।
असंज्ञी पंचेन्द्रिय के श्रोत्र-इन्द्रिय-विषय पाठ हजार धनुष है अर्थात् पाठ हजार धनुष अन्तर
१-२. प. पु. ६ पृ. १५८ पर तथा मूलाधार पर्याप्ति अधिकार में भी इस विषय के सम्बन्ध में उपयोगी गाथाएँ दी गई है।