Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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गाथा १७५
इन्द्रियमार्गणा/२४५
(श्रीन्द्रिय), भ्रमर (चतुरिन्द्रिय), और मनुष्यादि (पंचेन्द्रिय) ये सब पृथक्-पृथक् अपने-अपने उत्तरभेदों सहित द्विवार असंख्यात अर्थात असंख्यातासंख्याल है। निगोदिया अर्थात् साधारण वनस्पति अनन्तानन्त है ।।१७५।।
विशेषार्थ- स्थावर अर्थात् निगोदिया जीवों के अतिरिक्त समस्त एकेन्द्रिय जीव अपने भेदप्रतिभेद सहित अर्थात् पृथ्वीकायिक, जलकायिक, अग्निकायिक, वायुकायिक, प्रत्येकवनस्पतिकायिक जीच, असंख्यातासन्यात हैं। निगोद जीवों का पृथक कथन किया गया है इसलिए स्थावरों में निगोद प्रहरण नहीं किया गया है। द्वीन्द्रिय जीवों में उत्कृष्ट अवगाहना शंख की है अतः शंख कहने से समस्त द्वीन्द्रिय जीवों का ग्रहण हो जाता है। सर्व परिचित श्रीन्द्रिय जीव चींटी (पिपीलिका) है। अतः पिपीलिका कहने से समस्त त्रीन्द्रिय जीवों का ग्रहण हो जाता है। चतुरिन्द्रिय जीवों में भ्रमर की उत्कृष्ट अवगाहना है अतः भ्रमर कहने से समस्त चतुरिन्द्रिय जीवों का ग्रहण हो जाता है। पंचेन्द्रियों में मनुष्य की प्रधानता है, क्योंकि मनुष्यगति में ही जीव संयम के द्वारा कर्मबन्धन को काटकर मुक्ति प्राप्त कर सकता है। अतः मनुष्यादि कहने से चारों गतियों के समस्त पंचेन्द्रिय जीवों का ग्रहण हो जाता है (द्विक वार असंख्यात कहने से असंख्यातासंख्यात का ग्रहरण होता है, क्योंकि 'असंख्यातासंख्यात' में असंख्यात शब्द का दो बार प्रयोग होता है।)
एकेन्द्रिय जीव, एकेन्द्रिय सूक्ष्म जीव, एकेन्द्रिय बादर जीव, एकेन्द्रिय पर्याप्त जीव, एकेन्द्रिय सूक्ष्म पर्याप्त जीव, एकेन्द्रियबादर पर्याप्त जीव, एकेन्द्रिय अपर्याप्त जीव, एकेन्द्रियसूक्ष्म अपर्याप्त जीव, एकेन्द्रिय बादर अपर्याप्त जीव, इस प्रकार एकेन्द्रिय जीवों की नौ राशियाँ द्रव्य प्रमाण की अपेक्षा अनन्तानन्त हैं, क्योंकि निगोदिया जीव भी एकेन्द्रिय हैं। कालप्रमाण की अपेक्षा अनन्तानन्त अवसपिरणी-उत्सपिणयों से अपहुत नहीं होते हैं। क्षेत्र की अपेक्षा अनन्तानन्त लोकप्रमाण है।'
शङ्का-उक्त नौ राशियों वाले एकेन्द्रिय जीवों में जगत्प्रतर के असंख्यातवें भाग प्रमाण जीव त्रसों में से प्राकर उत्पन्न होते हैं और उतने ही जीव एकेन्द्रियों में से निकल कर त्रसों में उत्पन्न होते हैं। श्राय और व्यय समान होने के कारण इन नौ राशिय एकेन्द्रिय जीवों का कभी अन्त नहीं होगा। इमलिये यह कथन अनुक्तसिद्ध होने से यह सूत्र प्रारम्भ करने योग्य नहीं है।
समाधान- इन पूर्वोक्त नौ राशियों के प्राय और व्यय यदि समान होते तो यह सूत्र गाथा प्रारम्भ करने योग्य न होती, किन्तु इन राणियों का व्यय प्राय से अधिक है, क्योंकि पूर्वोक्त नौ राशियों में से निकल कर त्रसों में उत्पन्न होकर तथा सम्यक्त्व को ग्रहण करके संसारपर्याय का नाश कर दिया है वे पुनः उन पर्यायों में प्रवेश नहीं करते हैं। इसलिये ये नौ राशियाँ नियम से व्यय सहित हैं। इसलिये ये नौ राशियां व्यय सहित हैं। इस प्रकार इन नौ राशियों का व्यय सहित होने पर भी ये नौ रामियां कभी भी बिच्छिन्न नहीं होती हैं, क्योंकि अतीन काल से वे अपने एक स्वरूप से स्थित हैं। यदि सम्पूर्ण जीव राशि से अतीत काल अनन्तगुणा होता नो अतीन काल से सम्पूर्ण जीवराशि अपहृत होती, परन्तु ऐसा है नहीं. क्योंकि इस प्रकार की उपलब्धि नहीं होती ।
शङ्का-व्यतीत हुए काल के द्वारा सम्पूर्ण जीवराशि का व्युच्छेद क्यों नहीं होता ?
१. घबल पु. ७ पृ. २६७-२६८ सूत्र ५७-६० ।