Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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१९२/गो. सा. जीव काण्ड
गाथा १४२ __ योग-जो संयोग को प्राप्त हो, वह योग है ।' संयोग को प्राप्त होने वाले वस्त्रादिक से व्यभिचार दोष भी नहीं पाता, क्योंकि वे आत्मा के धर्म नहीं हैं। कषायों के साथ भी व्यभिचार दोष नहीं पाता, क्योंकि कषाय कर्मों के ग्रहण करने (आस्रव) में कारण नहीं है ।२ अथवा प्रदेशपरिस्पन्दरूप आत्मा की प्रवृत्ति से कर्मों के ग्रहण करने में कारणभूत वीर्य की उत्पत्ति को योग कहते हैं। अथवा प्रात्मा के प्रदेशों के संकोच और विस्तार रूप होने को योग कहते हैं। (प्रा. पं. १/५५)
वेद जो वेदा जावे अथवा अनुभव किया जावे वह बेद है।'
शङ्का-वेद का इस प्रकार लक्षण करके आठ कर्मों के उदय को भी वेद संज्ञा प्राप्त हो जाएगी, क्योंकि वेदन की अपेक्षा वेद और पाठकर्म दोनों ही समान हैं। जिस प्रकार बेद वेदनरूप है उसी प्रकार ज्ञानाचरणादि पाट कर्मों का उदब भी वेदनरूप है।
समाधान-ऐसा नहीं समझना चाहिए, क्योंकि सामान्यरूप से की गई कोई भी प्ररूपणा अपने विशेषों में पाई जाती है। इसलिए विशेष का ज्ञान हो जाता है। अथवा रौढिक शब्द की व्युत्पत्ति रूढ़ि के अधीन होती है। अतः वेद शब्द पुरुषवेदादि में रूढ़ होने के कारण 'वेद्यते' अर्थात जो वेदा जाए इस व्युत्पत्ति से वेद का ही ग्रहण होता है, ज्ञानावरणादि पाठकों के उदय का नहीं। अथवा प्रात्मप्रवृत्ति में मथुनरूप सम्मोह को उत्पन्न करने वाला वेद है।"
कषाय—मुख, दुःखरूपी नाना प्रकार के धान्य को उत्पन्न करने वाले कर्मरूपी क्षेत्र का जो कर्षण करती है अर्थात् फल उत्पन्न करने के योग्य करती है, वह कषाय है।
शङ्का-- यहाँ पर कषाय शब्द की "कषन्तीति कषायाः" अर्थात् जो कसे वह कषाय है, इस प्रकार की व्युत्पत्ति क्यों नहीं की?
समाधान –'जो कषे वह कषाय है' इस प्रकार की व्युत्पत्ति करने पर करने वाले किसी भी पदार्थ को कषाय माना जाएगा। अतः कषाय के स्वरूप को समझने में संशय उत्पन्न हो सकता है, इसीलिए जो कषे वह कषाय है इस प्रकार की व्युत्पत्ति नहीं की गई तथा इस व्युत्पत्ति से कषाय के समझने में कठिनता आ जाएगी, इस भीति से भी 'जो वषे, वह कषाय है' कषाय शब्द की इस प्रकार की व्युत्पत्ति नहीं की गई।
ज्ञान-सत्यार्थ का प्रकाश करने वाला, सो ज्ञान है। शङ्का-भिभ्याष्टि का ज्ञान भूतार्थ का प्रकाशक कैसे हो सकता है ?
१. 'युज्यत इति योगः' (व.पु. १ पृ. १३६)। २. ध.पु. १ पृ. २३६-२४० । ३. "वद्यत इति वेबः" (प. पु. १ पृ. १४०-४१)। ४. "प्रथयात्मप्रवृत्तेमशुनसम्मोहोत्पादो वैदः” (मूलाचार पर्याप्ति अधिकार गा. १५६ टीका, पृ. २७६; घ, पु. १ पृ. १४१ । ५. "सुखदुःखरूपबहुशस्यकर्मक्षेत्र कृपन्तीति कषायाः।" (श्र. पु. १ पृ. १४१)। ६. "भूतार्थप्रकाशक ज्ञानम्" (मूलाचार पर्याप्ति अश्विकार १२, गा. १५६ टोका पृ. २७७; घ. पु. १ पृ. १४२ ।