Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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माया १६४
इन्द्रियमार्गणा/२६
यहाँ अन्तर्मुहुर्त का प्रमाण पावली का असंख्यातवा भाग अथवा संन्यात प्रावलियां नहीं है । यद्यपि संख्यात्त प्रावलियों का अन्तर्मुहूर्त होता है, तथापि कार्य में कारण का उपचार करने से असंख्यात प्रावलियों के अन्त मुहूर्तपने का कोई विरोध नहीं है ।'
सर्वार्थ सिद्धि विमानवासी देव द्रव्यप्रमाण की अपेक्षा संख्यात हैं। यहाँ संख्यात का प्रमाण मनुष्यिनियों से तिगुना जानना ।
इस प्रकार गोम्मटसार जीबकाण्ड में हठा गतिमार्गणा अधिकार पूर्ण हुआ।
७. इन्द्रिय-मार्गणाधिकार
इन्द्रिय का निरुक्ति अर्थ 'अहमिदा जह देवा, प्रविसेसं अहमहं ति मण्णंता ।
ईसंति एक्कमेक्क, इंवा इव इंदिये जाण ॥१६४।। गाथार्थ --जिस प्रकार अहमिन्द्रदेव बिना किसी विशेषता के "मैं इन्द्र हूँ, मैं इन्द्र हूँ" इस प्रकार मानते हुए प्रत्येक स्वयं को स्वामी मानते हैं, उसी प्रकार इन्द्रियों को जानना चाहिए ।।१६४१॥
विशेषार्थ-इन्द्र, सामानिक आदि भेद न होने के कारण कल्पातीत ग्रंबेयक आदि विमानवासी अहमिन्द्रदेवों में परस्पर कोई विशेषता नहीं है, अतः अपने-अपने व्यापार में ''मैं ही हूँ" ऐसा स्वतंत्ररूप से अपने को मानते हुए प्रत्येक पृथक-पृथक स्वामी-सेवक की प्राधीमता रहित प्रवर्तते हैं। इसी प्रकार हीनाधिकता के भेद से रहित स्पर्शन आदि इन्द्रियाँ भी अपने-अपने स्पर्श आदि विषय को ग्रहण करने में "मैं ही हूँ' ऐसा अपने आपको स्वतंत्र मानते हुए दूसरे की अपेक्षा बिना प्रत्येक इन्द्रिय स्वामीपने से वर्तन करती है। स्पर्शन इन्द्रिय को अपना स्पर्शरूप विषय जानने में रसना इन्द्रिय की अपेक्षा नहीं रहती। इसी प्रकार रसना आदि इन्द्रियाँ भी अन्य इन्द्रियों की अपेक्षा रहित, अपनेअपने विषय को स्वभाव से जानती हैं ।
इन्दन अर्थात् ऐश्वर्यशाली होने से यहाँ इन्द्र शब्द का अर्थ प्रात्मा है और इन्द्र (आत्मा) के लिङ्ग (चिह्न) को इन्द्रिय कहते हैं । जो इन्द्र (नामकर्म) से रची जावे, वह इन्द्रिय है।"
इन्द्रियाँ अपने-अपने नियत विषय में ही रत हैं अर्थात् नियत विषय में ही व्यापार करती हैं, अतः संकर और व्यतिकर दोष से रहित हैं। अपने-अपने विषय को स्वविषय कहते हैं, उसमें जो निश्चय से अर्थात् अन्य इन्द्रियों के विषय में प्रवृत्ति न करके केवल अपने ही विषय में रत हैं, बे इन्द्रियाँ हैं।
अथवा अपनी-अपनी वृत्ति में जो रत हैं, वे इन्द्रियाँ हैं। इसका स्पष्टीकरण यह है कि
१. प. पु. ७ पृ. २६७। २. प. पु. ३ पृ. २८६। ३. घ.पु. १ पृ. १३७ । प्रा.पं.सं. (ज्ञानपीठ) पृ. १४ था. ६५, पृ. ५७६ गा. ६६ । ४. सिद्धान्त चक्रवर्ती श्रीमदभयचन्द्रमूरि कृत टीका । ५. ध.पु. १ पृ. २३३ ।