Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
View full book text
________________
गाषा १६६-१६७
इन्द्रियमार्गणा/२३५ समाधान-यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि यहाँ 'एक' शब्द प्राथम्यवाची है, अतः उससे 'स्पर्शनरसनप्राणचक्षुःश्रोत्रारिण" इस सूत्र में आई हुई सबसे प्रथम स्पर्शन-इन्द्रिय का ही ग्रहण होता है।
वीर्यान्तराय और स्पर्शनेन्द्रियावरण कर्म के क्षयोपशम पर, रसनादि शेष इन्द्रियावरण के सर्वघाती स्पर्धकों के उदय होने पर तथा एकेन्द्रियजाति नामकर्म के उदय की वशतिता के होने पर एक स्पर्शन इन्द्रिय उत्पन्न होती है ।
एकेन्द्रिय जीब के एक स्पर्शनेन्द्रिय । द्वीन्द्रिय जीव के स्पर्शन और रसना ये दो इन्द्रियाँ । श्रीन्द्रिय जीव के स्पर्शन-रसना-घ्राण ये तीन इन्द्रियाँ । चतुरिन्द्रिय जीव के स्पर्शन-रसना-प्राण और चक्ष ये चार इन्द्रियाँ तथा पंचेन्द्रिय जीव के स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु और श्रोत्र, ये पाँच इन्द्रियों होती हैं।
__ एक-एक इन्द्रिय का बढ़ता हुआ क्रम जिन इन्द्रियों का पाया जावे, ऐसी एक-एक इन्द्रिय के बढ़ते हुए क्रमरूप पाँच इन्द्रियाँ होती हैं।
जिनके दो इन्द्रियाँ होती हैं, वे दो इन्द्रिय जीव हैं। वे दो इन्द्रिय जीव शंख, शुक्ति और कृमि प्रादिक द्वीन्द्रियजीव हैं। कहा भी है--
"कुक्खिकिमि-सिप्पि-संखा-गंडोलारिट-अयष-खुल्ला य ।
तह य बराडय जीवा या बीइंदिया एदे ॥१३६॥ अर्थात् कुक्षि-कृमि (पेट के कीड़े), सीप, शंख, गण्डोला (उदर में उत्पन्न होने वाली बड़ी कृमि), अरिष्ट, अक्ष (चन्दनक नाम का जलचर जीव विशेष), क्षुल्लक (छोटा शंख) और बौड़ी श्रादि द्वीन्द्रिय जीव हैं।
शङ्का–वे दो इन्द्रियाँ कौन सी हैं ?
समाधान स्पर्शन और रसना । स्पर्शन का लक्षण कहा जा चुका है। रसना इन्द्रिय का । स्वरूप-वीर्यान्तराय रसनेन्द्रियावरण (मतिज्ञानावरण) कर्म के क्षयोपशम से तथा अङ्गोपाङ्ग नामकर्म के उदय के अवलम्बन से जिसके द्वारा स्वाद का ग्रहण होता है वह रसना इन्द्रिय है ।
शङ्का - रसना इन्द्रिय का विषय बया है ? समाघान-रसना इन्द्रिय का विषय रस है । शङ्का-रस शब्द का क्या अर्थ है ?
समाधान—जिस समय प्रधानरूप से वस्तु विवक्षित होती है उस समय बस्तु को छोड़कर पर्याय नहीं पाई जाती, इसलिए बस्तु ही रस है। इस विवक्षा में रस के कर्मसाधनपना
२. घ.पृ. १ पृ. २३६-४०1 ३. प.पु. १ पृ. २५८-५६ । ४. घ. पु. १ पृ. २४१ ।
१. स.मू.अ. २ सूत्र १६ । ५. घ, पु. १ पृ. २४१ ।