Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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२३२ / गो. सा. जीवकाण्ड
गाथा १६६-१६७
शङ्ख-कर्म स्कन्धों के साथ जीव के सम्पूर्णप्रदेशों के भ्रमण करने पर जीवप्रदेशों से समवाय सम्बन्ध को प्राप्त शरीर का भी जीवप्रदेशों के समान भ्रमण होना चाहिए ?
नामदेव गई है, क्योंकि जीवप्रदेशों की भ्रमणरूप अवस्था में शरीर का जीवप्रदेशों के साथ समवाय सम्बन्ध नहीं रहता है ।
शङ्का - भ्रमण के समय शरीर के साथ जीवप्रदेशों का समवायसम्बन्ध नहीं मानने पर मरण प्राप्त हो जाएगा ?
समाधान- नहीं, आयुकर्म के क्षय को मरण का कारण माना है ।
शङ्का - तो जीवप्रदेशों का शरीर के साथ पुनः समवाय सम्बन्ध कैसे बन जाता है ?
समाधान- इसमें भी कोई बाधा नहीं है, क्योंकि जिन्होंने नाना अवस्थाओं का उपसंहार कर लिया है, ऐसे जीवप्रदेशों का शरीर के साथ पुनः समवायसम्बन्ध उपलब्ध होता हुआ देखा जाता है । तथा दो मूर्त पदार्थों के सम्बन्ध होने में कोई विरोध भी नहीं आता है। अथवा जीवप्रदेश और शरीरसंघटन के हेतुरूप कर्मोदय के कार्य की विचित्रता से यह सब होता है। जिसके अनेक प्रकार के कार्य अनुभव में घाते हैं, ऐसे कर्म का सस्त्र पाया ही जाता है ।
शङ्का - द्रव्येन्द्रिय प्रमाण जीवप्रदेशों का भ्रमण नहीं होता है, ऐसा क्यों नहीं माना जाता ?
समाधान- नहीं, यदि द्रव्येन्द्रियप्रमाण जीवप्रदेशों का भ्रमरण नहीं माना जावे तो श्रत्यन्त द्रुतगति से भ्रमण करते हुए जीवों को घूमती हुई पृथ्वी आदि का ज्ञान नहीं हो सकता है। इसलिए आत्मप्रदेशों के भ्रमण करते समय द्रव्येन्द्रियप्रमाण श्रात्मप्रदेशों का भी भ्रमण स्वीकार कर लेना चाहिए ।"
शङ्का - उपयोग इन्द्रियों का फल है, क्योंकि उसकी उत्पत्ति इन्द्रियों से होती है, ऋतः उपयोग को इन्द्रियसंज्ञा देना उचित नहीं है ?
समाधान- नहीं, क्योंकि कारण में रहने वाले धर्म की कार्य में अनुवृत्ति होती है। लोक में कार्य, कारण का अनुकरण करते हुए देखा जाता है। जैसे घट के श्राकार से परिणत हुए ज्ञान को घट कहा जाता है. उसी प्रकार इन्द्रियों से उत्पन्न हुए उपयोग को भी इन्द्रिय संज्ञा दी गई है । २
इन्द्रिय- अपेक्षा जीवों के भेद
॥ १६६॥
फासरसगंधरूये, सद्दे गाणं च चिण्हयं जेसि । इतिचदुपचयिजीवा यि भेयभिण्णा एइंदियस्स फुसणं, एक्कं बि य होदि सेसजीवाणं । होंति कमउड्डियाई, जिन्भाघाच्छ्सिोत्ताइं ॥१६७॥
१. ध. पु. १ पृ. २३३-६४ । २. घ. पु. १ पृ. २३७ ।