Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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गाया १६०.१६३
गतिमायणा/२२७
शङ्का --वाणव्यन्तरदेव द्रव्यप्रमाण से कितने हैं ? समाधान बाराव्यन्तरदेव द्रव्य प्रमाण से प्रसंख्यात हैं। शङ्खा-क्षेत्र की अपेक्षा वाणष्यन्तरदेवों का प्रमाण कितना है ?
समाधान-क्षेत्र की अपेक्षा वासव्यन्तरदेवों का प्रमाण जगत्प्रतर के संख्यात सौ योजनों के वर्गरूप प्रतिभाग से प्राप्त होता है।
'संख्यात सौ योजन' से अभिप्राय तीन सौ योजन के अङ्ग ल करके बर्गित करने पर उत्पन्न हुई (५३०८४१६००००००००००) प्रतराजलराशि से है।
शङ्का–काल की अपेक्षा बाणव्यंन्तरदेव कितने हैं ? . समाधान - काल की अपेक्षा असंख्यातासंख्यात अवसर्पिणी-उत्सपिरिणयों से अपहृत होते हैं।
यदि तिर्यचिनियों का अवहारकाल तद्योग्य संख्यातगुणित छह सौ योजनों के अङ्ग लों का वर्गमात्र हो तो वाणव्यन्तरों का अवहारकाल तीनसौ योजनों के अङ्ग लों के वर्गरूप प्रतराङ्गल प्रमाण हो सकता है। यदि पंचेन्द्रिय तिर्यचिनियों का अवहारकाल छह सौ योजनों के अगुल के वर्ग रूप ही है (मा. १५६) तो वाणयन्तरदेवों का अवहारकाल तीन सौ योजन के अङ्गुलों के वर्ग के संख्यातवैभाग होना चाहिए, अन्यथा अल्पबहुत्व के सूत्र के साथ इस कथन का विरोध प्राता है । उक्त अवहारकाल से भाजित जगत्प्रतर वागव्यन्तरदेवों का प्रमाण है ।
द्रव्याथिकनय की अपेक्षा स्थलरूप से ज्योतिषीदेवों का प्रमाण सामान्य देवराशि के समान अर्थात् २५६ सूच्यङगुल के वर्ग से भाजित जगत्प्रतर प्रमाण है, किन्तु पर्यायाथिकानय की अपेक्षा विशेषता है, वह इस प्रकार है-वाणन्यन्तर आदि देव ज्योतिषीदेवों के संख्यातवभाग हैं। उनसे सामान्यदेवराशि को अपवर्तित करने पर संख्यात लब्ध आते हैं। उस लब्ध संख्यात का विरलन करके सामान्यदेवराशि को समानखण्ड करके देने पर विरलितराशि के प्रत्येक एक के प्रति वाणव्यन्तर आदि देवराशि प्राप्त होती है। इस वाणव्यन्तर आदि देवराशि को सामान्य देवराशि में से घटा देने पर ज्योतिषीदेवों का प्रमाण प्राप्त होता है।
एक कम अधस्तन विरलन से देव-नवहारकाल को भाजित करने पर प्रतराङ्गल का संख्यातवाँभाग लब्ध पाता है, उसे देव-अवहारकाल में मिला देने पर ज्योतिषीदेवों का अबहारकाल होता है।
___ जैसा कि पहले कह चुके हैं कि “ज्योतिश्रीदेवों का प्रमाण २५६ सूच्यङ्गल के वर्ग से भाजित
१. प.पु. ७ पृ. २६२-६३, सूत्र ४०-४१ । २. प.पु. ७ पृ. २६३, सूत्र ४३ । ३. "संवेज्जोयगणेत्ति वुत्ते तिपिणजोयणसय मंगुलं काऊरण पग्गिदे जो उप्पज्जदि ससी सो घेत्तम्वो" (प.पु. ३ पृ. २७३ सूत्र ६३ की टीका) ४. घ.पु. ७ पृ. २६३, सूत्र ४२ । ५. "बाररावेंतरदेवा संखेजगुरा" (ध.पु. ७ पृ. ५८५, सूत्र ४०)। ६. च.पु. । ३ पृ. २७३-७४ । ७. "जोइसियदेवा देवगईणं मंगो" [घ.पु. ३ पृ. २७५, सूत्र ६५] । ८. ध.पु. ३ पृ. २७५-७६, सूत्र ६५ की टीका । १. प. पु. ३ पृ. २७६, सूत्र ६५ की टीका |