Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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गाथा १६०-१६३
गतिमार्गणा/२२५ सम्यग्दृष्टि मनुष्य संख्यातगुणे हैं। असंयतसम्यादृष्टि मनुष्यों से मनुष्यपर्याप्त मिथ्यादृष्टि मनुष्य संख्यातगुणे हैं। मनुष्य पर्याप्त मिथ्यादृष्टियों से पर्याप्त मनुष्यिनी मिथ्याष्टि संख्यातमुखी हैं। मनुष्य अपर्याप्तकों का अवहारकाल असंख्यातगुणा है। मनुष्यनपर्याप्तक असंख्यातगुणे हैं।' सामान्य मनुष्यों में सासादन सम्यग्दृष्टि आदि गुणस्थानप्रतिपन्न जीवों की जो संख्या कही गई है उसके संख्यातवें भाग मनुष्यनियों में सासादन सम्यग्दृष्टि आदि गुणस्थानप्रतिपन्न जीवों का प्रमाण है, क्योंकि अप्रशस्त वेदोदय के साथ प्रचुर जीवों को सम्यक्त्व का लाभ नहीं होता है।
शङ्का-यह कैसे जाना जाता है ?
समाधान-"नपुसकवेदी असंयतसम्यग्दृष्टि जीव सबसे स्तोक हैं, स्त्रीवेदी असंयतसम्यग्दृष्टि उनसे असंख्यातगुणे हैं और पुरुषवेदी असंयत्तसम्यग्दृष्टि उनसे असंख्यातगुरणे हैं", इस अल्पबहुत्व के प्रतिपादन करने वाले सूत्र से स्त्रीवेदियों के अल्प होने के कारण इनका स्तोकपमा जाना जाता है तथा इसी से सासादन सम्यग्दृष्टि आदि के भी स्तोकपना सिद्ध हो जाता है, परन्तु इतनी विशेषता है कि उन सासादनसम्यग्दृष्टि आदि मनुष्यनियों का प्रमाण इतना है, यह नहीं जाना जाता है, क्योंकि इस काल में इस प्रकार का उपदेश नहीं पाया जाता है ।
देवति के जीवों का प्रमागा तिण्णिसयजोययाणं, वेसवछप्पण्णभंगुलारणं च । कविहिदपदरं तर, जोइसियाणं च परिमाणं ॥१६०॥ घरणभंगुलपठमपवं, तदियपई सेढिसंगुणं कमसो । भवणे सोहम्मदुगे, देवाणं होदि परिमाणं ॥१६१॥ तत्तो एगारगवसगपरणचउरिणयमूलभाजिदा सेढी। पल्लासंखेज्जदिमा, पलेयं प्रारणदादिसुरा ।।१६२॥ तिगुणा सत्तगुरणा वा, सम्वट्ठा माणुसीपमारगायो ।
सामण्णदेवरासी, जोइसियादो विसेसहिया ।।१६३॥ गाथार्य- जगत्प्रतर में तीन सौ योजन के वर्ग का भाग देने पर व्यन्तरदेवों का प्रमाण प्राप्त होता है और दो सौ छप्पन अङ्गल के वर्ग का भाग देने पर ज्योतिषी देवों का प्रमाण प्राप्त होता है ॥१६०|| घनाङ्ग ल के प्रथमवर्गमूल ज.श्रे. को गुणा करने पर भवनवासी देवों का प्रमाण प्राप्त होता है और ज.श्रे. को घनाङ्ग ल के तृतीयवर्गमूल से गुणा करने पर सौधर्म-ईशान युगल के देवों का प्रमाण प्राप्त होता है ।।१६॥ उससे ऊपर अपने ज.वे. के ग्यारहवें, नौवें, सातवें, पांचवें और चौथे वर्गमूल से भाजित ज.थे. प्रमाण तीसरे (सानत्कुमार) कल्प से बारहवें (सहस्रार) कल्प तक ५ कल्पयुगलों में देवों का प्रमाण जानना । अानतादि (२६ विमानों) में देवों का प्रमाण पल्य के असंख्यातवेंभागप्रमाण है ।।१६२॥ सर्वार्थसिद्धि के देव मनुष्यिनियों से तीनगुणे या सातगुणे हैं तथा सामान्यदेवराशि ज्योतिपीदेवों से कुछ अधिक है ।।१६३।।
१. घ. पु. : पृ. २६६ । २. ध. पु. ३ पृ. २६१-२६२ ।