Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
View full book text
________________
२२६/गो. मा. जीवकाण्ड
गाथा १६०-१६३
विशेषार्थ - शङ्का-देवगति में देव द्रव्यप्रमाण से कितने हैं ?
समाधान- -देवगति में देव द्रव्यप्रमाण से असंख्यात हैं। यहाँ असंख्यात से संख्यात और अनन्त का प्रतिषेध जानना चाहिए।'
शङ्का क्षेत्र की अपेक्षा देवों का प्रमाण कितना है ? ___ समाधान-क्षेत्र की अपेक्षा देवों का प्रमाण जगत्प्रतर को दो सौ छप्पन अङ्गल के वर्ग से भाग देने पर प्राप्त होता है।
'अगल' ऐसा सामान्यपद कहने पर यहाँ सूच्यङ्गल का ग्रहण होता है। २५६ सूच्यङ्गल का वर्ग ६५५३६ प्रतराङ्ग ल होता है। इससे जगत्प्रतर को भाग देने पर देवराशि का प्रमास होता है। इसप्रकार देवराशि अजघन्यानुत्कृष्ट (मध्यम) असंख्यातासंख्यातप्रमाण सिद्ध होती है।
शङ्का-काल की अपेक्षा देव कितने हैं ? समाधान - काल की अपेक्षा देव असंख्यातासंख्यात अवसपिणी-उत्सपिणियों से अपहृत होते
इसप्रकार द्रव्य, क्षेत्र, काल की अपेक्षा सामान्य से देवरामि का प्रमाण कहा। तदनन्तर भवनबासी, वानव्यन्तर, ज्योतिषी और वैमानिक देवों का पृथक्-पृथक् प्रमाण कहते हैं।
शङ्का - भवनबासीदेव द्रव्यप्रमाण से कितने हैं ? समाधान-भवनवासीदेव द्रव्यप्रमाण से असंख्यात हैं। शङ्का ---क्षेत्र की अपेक्षा भवनवासीदेव कितने हैं ?
समाधान- क्षेत्र की अपेक्षा भवनवासीदेव असंख्यातजगच्छे णीप्रमाण हैं, जो जगत्प्रतर के असंन्यानवेंभागप्रमाण है और जिसकी विष्कम्भसूची सूच्यङ्गल को सूच्यङ्गल के ही वर्गमूल से गुणित करने पर उपलब्ध होती है। अर्थात् सूच्यङ्गल को सूत्र्याल के प्रथमवर्गमूल से गुरिणत करने पर (सूच्यङ्ग लप्रथमवर्गमूल x सूच्यङ्ग लप्रथमवर्गमूल x सूच्यङ्ग लप्रथमवर्गमूल) घनाङ्ग ल का प्रथमवर्गमूल प्राप्त होता है यही ज.श्रे. की विष्कम्भमूची है। इस विष्कम्भसूची से जगच्छेगी को गुगित करने पर भवनवासी देवों का प्रमाण प्राप्त होता है।
शङ्का-काल की अपेक्षा भवनवासीदेव कितने हैं ?
समाधान-काल की अपेक्षा भवनवासीदेव असंख्यातासंस्यात अवमपिणो-उत्सपिणियों से अपहृत होते हैं ।
१. ध. पु.७ पृ. २५२, मूत्र ३०-३१ । २. श्र. पु. ७ पृ. २६०, सूत्र ३३ । ३. "म गुलमिदि कुत्तै एल्थ सूचिन गुलं बेत्तव' प. पु. ३ पृ. २६८, सूत्र ५५. को टीका। ४. व. पु. ७ पृ. २६०-६१। ५. ३. पु. ७ पृ. २६०, सूत्र ३२। ६.प. पु. ७ पृ. २६१-२६२, सत्र ३७-३८ । ७. घ. पु. ३ पृ. २७१, सूत्र ५५ की टीका । ८. घ.पृ.७