Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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१९० / गो. सा. जीवकाण्ड
अर्थात् पर्यायों में जीव वर्तन करता है, जिसके द्वारा श्रुत जाना जावे वह श्रुतज्ञान है । यहाँ श्रुतज्ञान से अभिप्राय वाक्यरूप द्रव्यश्रुत का है जो गुरु-शिष्य-प्रशिष्य की परम्परा से अविच्छिन्न प्रवाहरूप से चला श्राया है । कालदोष से या प्रमाद से यदि शास्त्रकार कहीं स्खलित हो गये हों तो उसको छोड़कर परमागम के व्याख्यान के द्वार को ग्रहण करना चाहिए ।"
गाथा १४२
शङ्का -- लोक में अर्थात् व्यावहारिक पदार्थों का विचार करते समय भी चारप्रकार से अन्वेषण देखा जाता है। वे चार प्रकार ये हैं- मृगयिता, मृग्य, मार्गेरणा और मार्गणोपाय | किन्तु यहाँ लोकोत्तर पदार्थ के विचार में वे चारों प्रकार नहीं पाये जाते, इसलिए मार्गणा का कथन करना नहीं बन सकता है ?
समाधान - यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि इस प्रकरण में भी वे चारों प्रकार पाये जाते हैं । वे इसप्रकार हैं-- जीवादि पदार्थों का श्रद्धान करने वाला भव्य पुण्डरीक मृगयिता है अर्थात् लोकोत्तर पदार्थं का अन्वेषण करने वाला है। चौदह गुणस्थानों से युक्त जीव मृग्प अर्थात् अन्वेषण करने योग्य है । जो मृग्य प्रर्थात् चौदह गुणस्थान विशिष्ट जीव के आधारभूत है अथवा अन्वेषण करने वाले भव्य जीव को अन्वेषण करने में अत्यन्त सहायक कारण हैं, ऐसी गति आदिक मार्गणा है । शिष्य श्रीर उपाध्याय प्रादिक मार्गरणा के उपाय हैं । *
चौदह मार्गणात्रों का नाम निर्देश
'गइ इंदियेसु काये जोगे वेदे कसायाने य ।
संजम सरणलेस्सा भवियासम्मत्तसणिश्राहारे ।। १४२ ।।
गाथार्थ -- गति, इन्द्रिय, काय, योग, वेद, कपाय, ज्ञान, संयम, दर्शन, लेमा, भव्य, सम्यक्त्व, संज्ञी और आहार ये चौदह मार्गणाएँ हैं ।। १४२ ।।
विशेषार्थ - - गति में, इन्द्रिय में, काय में, योग में, वेद में, कषाय में ज्ञान में, संयम में, दर्शन में, लेश्या में, भव्य में, सम्यक्त्व में, संज्ञी में और आहार में जीवसमालों (गुणस्थानों) का अन्वेषण कया जाता है । इस गाथा सूत्र में 'य' शब्द समुच्चयार्थक है। मार्गगाएं चौदह ही होती हैं । *
शङ्का--गाथा सूत्र में सप्तमी विभक्ति का निर्देश क्यों किया गया है ?
समाधान -- उन गति आदि मार्गणाओं को जीवों का प्राधार बतलाने के लिए सप्तमी विभक्ति का निर्देश किया है । इसी प्रकार प्रत्येक पद के साथ तृतीयाविभक्ति का भी निर्देश हो सकता है ।
शङ्का - जयकि प्रत्येक पद के साथ सप्तमी विभक्ति पाई जाती है तो फिर तृतीया विभक्ति कैसे सम्भव है ?
४. घ.
१. सिद्धान्तचक्रवर्ती श्रीमदमयचन्द्रसूरि कृत टीका । २. ध. पु. १ पृ. १३३-३४ । ३. प्रा. पं. स. पू. १२ गा. ५७, पृ. ५७५ गा. ४६ । मूलाचार पर्याप्ति अधिकार पृ. २७६ गा. १५६ । ध. पु. १ पृ. १३२ सूत्र ४ । पु. १ पृ. १३२ । ५. अ. पु. १ पृ. १३३ ।