Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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गाथा १५३-१५४
गतिमार्गरगा/२१५
शङ्का - यह भी कैसे?
समाधान-सूच्यंगुल का द्वितीय वर्गमूल - सूच्यंगुल का द्वितीय वर्गमूल x सूच्यंगुल का द्वितीय वर्गमूल ; अर्थात् “सूच्यं गुल - मूच्यंगुल x सूच्यंगुल" का द्वितीय वर्गमूल । इस प्रकार सूच्यंगुल को परस्पर तीन बार गुणित करने से सूच्यंगुल का धन प्राप्त होता है। सूच्यंगुल का धन ही घनांगुल है । अत: धनांगुल का द्वितीय वर्गमूल कहा गया है। इस प्रकार दोनों पार्षग्रन्थों में प्रमाण राशि समान है, उसमें भिन्नता नहीं है ।
शङ्का-ध.पु. ७ पृ. २४६ सूत्र १३ की टीका में कहा है कि "जगच्छ्रेणी के प्रथम बर्गमूल को आदि करके उसके बारहवें, दसवें, पाठये, छठे, तीसरे और दुसरे वर्गमूल तक पृथक्-पृथक गुणाकर व गुण्य क्रम से अवस्थित छह राशियों का परस्पर गुणा करने पर यथाक्रम से द्वितीय, तृतीय, चतुर्थ, पंचम, षष्ठ और सप्तम पृथिवियों के नारकियों का प्रमाण प्राप्त होता है।" किन्तु उपयुक्त गाथा में कहा है कि जगच्छे णी को बारहवें, दसवें, आठवें, छठे, तीसरे और दूसरे वर्गमूलों से भाजित करने पर द्वितीयादि नीचे के छह नरकों के नारकियों की संख्या का प्रमाण प्राप्त होता है। इस प्रकार इन दोनों आगमों में विरोध क्यों है ?
समाधान-इन दोनों प्रागमों में विरोध नहीं है, क्योंकि दोनों आगमों में नारकियों की संख्या में भेद नहीं है।
शङ्का-धवलग्रन्थ में वर्गमूलों को परस्पर गुणा करने से संख्या बतलाई गई है और उपमुक्त गाथा में भाग देने से संख्या बतलाई गई है। गुणा करने से संख्या वृद्धि को प्राप्त होती है और भाग देने से संख्या हीन होती है। अतः इन दोनों पागमों में द्वितीयादि पृथिवियों के नारकियों की संख्या में अवश्य भेद होना चाहिए ?
समाधान नहीं, क्योंकि बड़ी संख्या को भाग देने से जो प्रमारण प्राप्त होता है वही प्रमागा छोटी संख्याओं को परस्पर गुणा करने से प्राप्त हो सकता है। जैसे सप्तम पृथ्वी के नारकियों का जो प्रमाण जगच्छणी के प्रथम वर्गमूल व द्वितीय वर्गमूल को परस्पर गुणा करने से प्राप्त होता है वही प्रमाण जगच्छ्रणी को द्वितीय वर्गमूल से भाग देने पर प्राप्त होगा।
शङ्का --यह कैसे सम्भव है ?
समाधान–सम्भव है, क्योंकि जगच्छणी को उसके ही द्वितीय वर्गमूल से भाजित करने पर उसका प्रथम वर्गमूल गुणित उसका द्वितीय वर्गमूल लब्ध प्राप्त होता है । जगच्छणी के प्रथमवर्गमूल को उसी के द्वितीय वर्गमूल से गुणा करने से उसका प्रथमवर्गमूल x उसका द्वितीय वर्गमूल प्राप्त होता है । मान लिया जाए कि जगच्छेणी 'ज' है । बीजगणित के अनुसार 'ज' का प्रथम वर्गमूल जर है और द्वितय वर्गमूल ज है । इनको परस्पर गुणा करने पर गुणनफल ज प्राप्त होता है, क्योंकि गुग्णा करने में घात जोड़ी जाती है (
२ ३)। 'ज' को यदि द्वितीय वर्गमूल ज से भाग दिया जावे तोजा प्राप्त होता है, क्योंकि भाग में धात घटाई जाती है (१-2 - 1)। अङ्कसंदृष्टि में जगच्छेणी २५६ है। २५६ का प्रथम वर्गमूल १६ और द्वितीय वर्गमूल ४ है। इन दोनों को परस्पर मुशा करने से (१६४४) ६४ प्राप्त होते हैं। जगच्छ्रेणी '२५६' को उसके द्वितीय वर्गमूल ४ से भाजित करने पर (२५६ : ४) ६४ प्राप्त होते हैं । इसीप्रकार अन्य पृथिवियों का प्रमाण जान लेना चाहिए ।