Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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२२०/गो. सा. जीवकाण्ड
गाथा १५६
को भाग देने पर पंचेन्द्रिय जीवों का प्रमाण प्राप्त होता हैं। इसमें से असंख्यात नारकी, असंख्यात देव तथा असंख्यात मनुष्य इन तीनों असंख्यातराशियों के घटाने पर पंचेन्द्रिय तिर्यंचों का प्रमाण प्राप्त होता है।
जगत्प्रतर को सूच्यंगल के ख्यातवें भाग के वर्ग से भाजित करने पर पंचेन्द्रिय पर्याप्त जीवों । का प्रमाण प्राप्त होता है जो मध्यम प्रसंख्यातासंख्यात है । इसमें से असंख्यातनारकी, संख्यातमनुष्य व असंख्यातदेव इन नीन गतियों के प्रमाण को घटाने पर पंचेन्द्रिय पर्याप्त जीवों का प्रमाण प्राप्त । होता है।
देव-प्रबहारकाल को संख्यातरूपों से गुणित करने पर पंचेन्द्रिय विर्यच योनिनी जीवों का अवहारकाल होता है । अथवा छह सौ योजन के अंगुल करके वर्ग करने पर २१२३ कोड़ाकोड़ी, छत्तीस कोड़ी लाख और ६४ कोड़ी हजार (२१२३,३६,६४,००००००००००) प्रतरांगुल पंचेन्द्रिय तिथंच योमिनी का अवहारकाल होता हैं ।
पंचेन्द्रिय तिर्थच योनिनियों के अवहारकाल से सम्बन्ध रखने वाला यह कितने ही प्राचार्यों का व्याख्यान घटित नहीं होता है, क्योंकि तीन सौ योजनों के अंगुलों का वर्गमात्र व्यन्तर देवों का अवहारकाल होता है।
शङ्का - यह पूर्वोक्त पंचेन्द्रिय तिर्थच योनिनियों के अवहारकाल का व्याख्यान असत्य है और वागव्यन्तर देवों के प्रवहारकाल के प्रमाण का व्याख्यान सत्य है, यह कैसे जाना जाता है ?
समाधान- इस विषय में पंचेन्द्रिय तिर्यंच योनिनी सम्बन्धी अवहारकाल का व्याख्यान असत्य ही है और व्यन्तर देवों के प्रवहारकाल का व्याख्यान सत्य ही है, ऐसा एकान्तमत नहीं है, किन्तु उक्त दोनों व्याख्यानों में से कोई एक व्याख्यान असत्य होना चाहिए अथवा दोनों ही व्याख्यान असत्य हैं ।"
पटखंडागम के मूल सूत्रों में तो 'क्षेत्र की अपेक्षा पंचेन्द्रिय तिर्यच योनिनी जीवों के द्वारा देवअवहारकाल से संख्यातगुणे काल से जगत्प्रतर अपहृत होता है' ऐसा वहा है। देव-अवहारकाल २५६ अंगुल का वर्ग है । क्षेत्र की अपेक्षा देवों का प्रमाण जगत्प्रतर के २५६ अंगुल के वर्गरूप प्रतिभाग से प्राप्त होता है।
श्री नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती का मत तो यही है कि ६०० योजन के वर्ग से जगत्प्रतर को भाग देने पर पंचेन्द्रिय योनिनी का प्रमाण प्रा'त होता है। पंचेन्द्रिय तिर्यंच लब्ध्यपर्याप्त जीव द्रव्यप्रमाण की अपेक्षा असंख्यात हैं । काल की अपेक्षा असंख्यातासंख्यात अवसपिरिणयों के द्वारा अपहृत होते हैं। क्षेत्र की अपेक्षा पंचेन्द्रिय लियंच अपर्यापतों के द्वारा देवों के अवहारकाल से असंख्यातगुण हीन काल के
१. "खेत्तेण पंचिटिएमु पदरमवहिरदि प्रसंगुलम्स असोज्जाद भाग बग्ग पडिमाशा ||२२|| [३, पृ. ३ पृ. ३१४; ध. पु. ७ पृ. २७. मूत्र ६४] । २. घ, पु. ७ पृ. २५३ । ३. प. पु. ३ पृ. २३० । ४. प. पु. ३ पृ. २३१ । ५. ध. पृ. ३ पृ. २३० सूत्र ३५ द घ. पु. ७ पृ. २५३ सूत्र. २१ । ६. ध. पु. ७ पृ. २६० मूत्र ३३ । ध. 'पु. ३ पृ. २६८ सूत्र ५५