Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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गाथा १५६
गतिमार्गणा/२१६
सिद्धकाल अनन्तगुणा है। सिद्धकाल से सिद्ध संख्यातगुणे हैं। सिद्ध जीवों से प्रसिद्धकाल असंख्यातगुणा है। असिद्धकाल से अतीत काल विशेष अधिक है अथवा सिद्धराशि को संख्यातनावली से गुणा करने पर अतीत काल का प्रमाण प्राप्त होता है।' अतीत काल से भन्यमिथ्याष्टि जीव अनन्तगुरणे हैं। भव्य मिथ्यादष्टियों से भव्यजीव विशेष अधिक हैं। भव्य जीवों से सामान्य मिथ्याष्टि जीव विशेष अधिक हैं। सामान्य मिथ्याष्टियों से संसारी जीव विशेष अधिक हैं। संसारी जीवों से सम्पूर्ण जीव विशेष अधिक हैं, सिद्ध जीवों का जितना प्रमाण है उतने विशेष अधिक हैं। सम्पूर्ण जीवराशि से पुद्गल द्रव्य अनन्तगुणा है। यहाँ सम्पूर्ण जीवराशि से अनन्तगुणा गुणकार है । पुद्गल द्रव्य से अनागतकाल अनन्तगुणा है। यहाँ सम्पूर्ण पुद्गल द्रव्य से अनन्तगुणा गुणकार है। अनागत काल से सम्पूर्ण काल विशेष अधिक है। सम्पूर्ण काल से अलीकाकाश अनन्तगुणा है। यहाँ सम्पूर्ण काल से अनन्तगुणा गुणकार है। अलोकाकाश से सम्पूर्ण आकाश विशेष अधिक है। इस प्रकार इस अल्पबहुत्व से प्रतीत हो जाता है कि प्रतीत काल से सम्पूर्ण जीव अनन्तगुरणे हैं। अत: प्रतीत काल के सम्पूर्ण समय अपहृत हो जाते हैं, परन्तु जीवराशि अपहृत नहीं होती। मोक्ष को जाने वाले जीवों की अपेक्षा संसारी जीवराशि का व्यय होने पर भी मिथ्या दृष्टि जीवराशि का सर्वथा विच्छेद नहीं होता । यदि अनन्तानन्त अवसर्पिणी और उत्सपिणियों से सम्पूर्ण जीवराशि अपहृत हो जावे तो सर्व भव्यजीवों के व्युच्छेद का प्रसंग आता है।'
शङ्का- अतीत काल से अपहृत किस प्रकार किया जाता है ?
समाधान । एक ओर अनन्तानन्त अवसपिणियों और उत्सपिणियों के समयों को स्थापित करके और दूसरी ओर मिथ्यादृष्टि जीवराशि को स्थापित करके, काल के समयों में से एक-एक समय और उसी के साथ मिथ्यादृष्टि जीवराशि के प्रमारग में से एक-एक जीव कम करते जाना चाहिए । इस प्रकार उत्तरोत्तर काल के समय और जीवराशि के प्रमाण को कम करते हुए चले जाने पर अनन्तानन्त अवसपिरिणयों और उत्सपिणियों के सब समय समाप्त हो जाते हैं, परन्तु मिध्यादृष्टि जीवराशि का प्रमाण समाप्त नहीं होता ।'
सर्व जीबराशि (जो मध्यम अनन्तानन्त है) में से सिद्ध जीवराशि (संख्यातावली गुरिणत प्रतीत काल) को घटा देने पर संसारी जीवों का प्रमाण प्राप्त होता है । संसारी जीवराशि में से असंख्यात नारकी, असंख्यात मनुष्य व संख्यातदेव इन तीन मतियों की संख्यातरूप संख्या को कम कर देने से सामान्य तिर्यंचों का प्रमाण प्राप्त होता है जो अनन्त है तथा संसारी जीवराशि से कुछ कम है । तियंच जीवराशि भी अनन्तानन्त अवसपिणी-उत्सपिणियों से अपहृत नहीं होती ।५.
पंचेन्द्रिय जीव असंख्यातासंख्यात हैं । जघन्य असंख्यातासंख्यात भी नहीं हैं और उत्कृष्ट असंख्यातासंख्यात भी नहीं हैं, किन्तु मध्यम असंख्यातासंख्यात हैं । अर्थात् सुच्यं गुल के प्रसंन्यात भाग के वर्ग से जगत्प्रतर को भाग देने पर जो लब्ध प्राप्त हो उतना पंचेन्द्रिय जीवों का प्रमागा है । प्रथवा सूच्यंगुल को पावली के असंख्यातवें भाग का भाग देने पर जो लब्ध हो उसके वर्ग से जगत्प्रतर
१. "तीदो मज्जावलिहद मिखाणं पमाणं तु ॥५५॥" | गो.जी.] २. घ.पु. ३ पृ. २८-३३। ३. ध. पू. ७ पृ. २५१ । ४.ध.पु. ३ पृ. २८ । ५. "प्रणतारणताहि ग्रीसप्पिरिण-उम्मम्पिणीहि रस अबहिरंति कालेगा।।१६।।" [प. पु. ७ पृ. २५१] ।