Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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गाथा १५७-१५६
गतिमार्गणा / २२१
द्वारा जगत्प्रतर अपहृत होता है।' पैंसठ हजार पाँच सौ छत्तीस (२५६ का वर्ग ) प्रतरांगुल देवों के अवहार काल में आवली के असंख्यातव भाग का भाग देने पर पंचेन्द्रिय नियंत्र अपर्याप्त का अवहारकाल होता है । * सामान्य पंचेन्द्रिय तिर्यच के प्रमाण में से पंचेन्द्रिय तिर्यच पर्याप्त राशि को घटा देने पर पंचेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्त तिथेचों का प्रभार प्राप्त होता है ।
शङ्का - पंचेन्द्रिय तिर्यंच सामान्य में से मात्र पंचेन्द्रिय पर्याप्त क्यों कम किये गये, पंचेन्द्रिय तिच योनि का प्रसारण भी कम होना चाहिए, क्योंकि पंचेन्द्रिय तिर्थच योनिनी भी पर्याप्त होते हैं ।
समाधान- नहीं, पंचेन्द्रिय तिर्यंच पर्याप्त में तीनों वेदवाले जीव या जाते हैं । श्रतः पंचेन्द्रिय तिच पर्यातकों के प्रमाण में पंचेन्द्रिय तिर्यच योनिनियों का प्रमाण भी गर्भित है ।
इस प्रकार तिर्यंचगति सम्बन्धी संख्या - प्ररूपणा समाप्त हुई ।
मनुष्यों का प्रमाण, पर्याप्तमनुष्यों, मनुष्यनी और पर्याप्त मनुष्यों की संख्या गुलआदिमत दियपदभाजि देगूला
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सामगमणुसरासी पंचमकदिघरणसमा पुष्णा ।। १५७ ।। 'तललीन मधुगविमलं धूमसिलागाविचोरभयमेरू । तटहरिखझसा होंति हु माणुसपज्जत्तसंखका ॥ १५८ ॥ पज्जत्तमणुस्साणं, तिचउत्थो माणुसीण परिमाणं । सामण्णा पुण्णूरणा मणुवप्रपज्जत्तगा होंति ।। १५६।।
गाथार्थ - सूच्यंगुल के प्रथम और तृतीय वर्गमूल से जगच्छ्रेणी को भाग देने पर जो लब्ध प्राप्त हो, उसमें से एक कम करने से प्राप्त राशिप्रमाण सामान्य मनुष्य हैं। तथा पांचवें वर्ग के श्रप्रमाण पर्याप्त मनुष्य हैं ।। १५७ ॥ तकार से सकार पर्यन्त गाथा में विद्यमान अक्षरों से सूचित ( उलटे क्रम से ) क्रमश: छह, तीन, तीन, शून्य, पाँच, नौ, तीन, चार, पाँच, तीन, नौ, पाँच, साल, तीन, तीन, चार, छह, दो, चार, एक, पाँच, दो, छह, एक, आठ, दो, दो नौ और सात अङ्क प्रमाण मनुष्य पर्याप्तकों की संख्या है ।११५८ || पर्याप्त मनुष्यों के प्रमाण का तीन चौथाई (३) मनुष्यिनियों का प्रमाण हैं । सामान्य मनुष्यराशि में पर्याप्त मनुष्यराशि कम करने पर जो राशि शेष रहे उतने प्रमाण अपर्याप्त मनुष्य होते हैं ।। १५६ ।।
विशेषार्थ - मनुष्यगति में मनुष्य द्रव्यप्रमाण से असंख्यात हैं। काल की अपेक्षा मनुष्य
१. पंचिदियतिरिवख अपज्जता दव्यमाणे केवडिया श्रसंखेज्जा ||३७|| श्रसंखेज्जासंखेज्जाहि ओसपिरिण उस्सपिरोहि अवहिरंति कालेगा ||३८|| खेतेा पंचिदियतिरिक्ख प्रपज्जत्तेहि पदरमबहिरदि देव बहार कालादी असंखेज्ञगुणहीशा कात्रेण ।। ३६ ।। " [ध. पु. ३ पृ. २३६२. पु. ३ पृ. २३६ । ३. "पंचिदियतिरिक् पज्जनविवेदा" [ध. पू. ३ पृ. २३८ ] प्रसंसेज्जा" ध.पु. ७ पृ. २५४ ।
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४. घ. पु. ७ पृ. २५८ ।
५. "मणुमगदीए मणुम्सा दव्यमाणेा