Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
View full book text
________________
२०४/गो. सा. जीवकाण्ड
गाथा १४९
• शङ्का-तिर्यचनियों के अपर्याप्तकाल में असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान का प्रभाव कैसे माना जा सकता है ?
समाधान नहीं, क्योंकि तियचनियों में असंयतसभ्यष्टियों की उत्पत्ति नहीं होती। शङ्का-यह कैसे जाना जाता है ? समाधान---यह निम्न गाथा सूत्र से जाना जाता है
छसु हेट्ठिमासु पुढधोसु जोइस-चरण-भवरण-सव-इत्थीसु ।
रणेदेसु समुप्पज्जइ सम्माइट्ठी दु जो जीयो ॥१३३॥ अर्थात-प्रथम नरक पृथ्वी के अतिरिक्त नीचे की छह नरक पृथिवियों में, ज्योतिषीबाणव्यन्तर और भवनवासी देवों में, गर्वप्रकार की स्त्रियों में सम्यग्दृष्टजीव उत्पन्न नहीं होता।'
तियचों में चौदह जीवसमास होते हैं।
तिर्यंच जीवों के चारों संज्ञाएं, समस्त इन्द्रियाँ, छहों काय, ग्यारह योग (वैक्रियिक, वैक्रियिकमिश्र, आहारक और आहारक मिश्र को छोड़कर), तीनों वेद, क्रोधादिक चारों कषाय, छह ज्ञान (३ ज्ञान ३ अज्ञान), दो संयम (असंयम, देशसंयम), केवलदर्शन को छोड़कर शेष तीन दर्शन, द्रव्य और भावरूप से छहों लेश्याएँ, भव्यत्व-अभव्यत्व और ग्रहों सम्यक्त्व होते हैं। ये सब तिमंच संज्ञी एवं प्रसंजी, आहारक एवं अनाहारक तथा ज्ञान एवं दर्शनरूप दोनों उपयोगों सहित होते हैं।
__ कितने ही तिर्यच जीव प्रतिबोध से और कितने ही स्वभाव से भी प्रथमोपशम एवं वेदक सम्यक्त्व को ग्रहण करते हैं। इसके अतिरिक्त बहुत प्रकार के तिथंचों में से कितने ही मुख-दुःख को देखकर, कितने ही जातिस्मरण से, कितने ही जिनेन्द्र महिमा के दर्शन से और कितने ही जिनबिम्ब के दर्शन से प्रथमोपशम एवं वेदक सभ्यपत्य को ग्रहण करते हैं।'
मनुष्यगति का स्वरूप "मण्णंति जदो पिच्चं, मणेण णि उरणा मणुक्कड़ा जम्हा । मण्णुब्भवा य सम्थे, तम्हा ते माणुसा भरिणदा ॥१४६॥
गाथार्थ-जो नित्य ही हेय-उपादेय को जानते हैं, शिल्प आदि अनेक कलाओं में प्रवीण है, धारणा प्रादि दृढ़ उपयोगवाले हैं और मनु (कुलकरों) की सन्तान हैं, अत: वे मनुष्य हैं ऐसा कहा गया है ।।१४६।।
विशेषार्थ-जो जीव निरन्तर हेय-उपादेय, तत्व-प्रतत्त्व, प्राप्त-अनाप्त तथा धर्म-अधर्म के
१ घ. पु. ६ पृ. २०१। २. ति, प. अधिकार ५, गाथा ३०७-३०६। ३. ति. प. अ. ५ गाथा ३१०-३११ । ४. प्रा. पं. सं. (जानपीठ) पृ. १३ गा. ६२. ब पृ. ५७६ गा, ६३-"मण्णंति जदो णिचं भगए गिउण। जदो दु जे जीवा । मषटक्कड़ा य जम्हा सम्हा ते माणुसा भणिया ।"