Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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गाथा १५१
गतिमार्गणा/२११
पंचपरमेष्ठी की स्तुति करते हैं, सदा पंचेन्द्रिय के विषयभोगों से सुखी रहते हैं, रूप, लावण्य श्रीर यौवन से जिनका वैक्रियिक शरीर जाज्वल्यमान प्रकाशमान रहता है, वे जीव देव हैं । '
देवों में दुःख - जिस किसी प्रकार महान् कष्टों से चार प्रकार के देवों में उत्पन्न होता है। इन्द्र, सामानिक, त्रास्त्रिशदादि महाऋद्धिधारी देवों की विक्रिया आदि ऋद्धियों को तथा सम्पदा ( विभूति) को देखकर मानसिक दुःख होता है । इन्द्र, सामानिक, त्रयस्त्रिशत् आदि महाऋद्धि वाले देवों को पाँच इन्द्रियों के सुख की तृष्ण से तथा प्रिय देवाङ्गना आदि के वियोग से दुःख होता है। जिन जीवों का सुख पाँच इन्द्रियों के स्पर्श आदि विषयों के आधीन है उनकी तृप्ति कैसे हो सकती है ? अर्थात् नहीं हो सकती । तृप्ति न होने से भोगों की तृष्णा निरन्तर बनी रहती है जिसके कारण वे सदा दुःखी रहते हैं। यद्यपि देवों को शारीरिक दुःख प्रायः नहीं होता है, क्योंकि उनके सुर्वक्रियिक शरीर है, किन्तु उनको मानसिक दुःख होता है। शारीरिक दुःख से मानसिक दुःख अतिप्रचुर होता है। जिसको मानसिक दुःख या चिन्ता होती है उसको विषयभोग, सुखदायक सामग्री भी दुःखदायक लगती है। देवों का सुख देवियों के नवशरीर, विक्रिया आदि मनोहर विषयों के श्राधीन है, वह विषयजनित सुख भी कालान्तर में द्रव्यान्तर के सम्बन्ध से दुःख का कारण बन जाता है, क्योंकि देवियों की लेश्या, आयु व बल देवो से भिन्न प्रकार का होता है। * इसलिए वे देवाङ्गनाएँ कालान्तर में दुःखदायक बन जाती हैं । ग्रन्य सुखदायक इष्ट सामग्री का परिणमन भी इच्छानुसार न होने से वह इष्टसामग्री भी दुःख का कारण हो जाती है ।
"एवं सुट्ठ प्रसारे संसारे दुक्ख - सायरे धोरे ।
कि कर व प्रत्थि सुहं वियारमाणं सुणिच्छियदो ॥ ६२ ॥
-यदि परमार्थं से विचारा जावे तो अत्यन्त साररहित दुःख के सागररूप संसार में किसको कहाँ सुख हो सकता है अर्थात् इस असार संसार में जब देव भी दुःखी हैं तो अन्य किसी को सुख कैसे हो सकता है ? तात्पर्य यह है कि सभी प्राणी दुःखो हैं ।
देवों के भेद - देव चार निकाय वाले हैं। * भवनवासी, व्यन्तर, ज्योतिषी और वैमानिक | जिनका स्वभाव भवनों में निवास करना है, वे भवनवासी हैं। असुरकुमार, नागकुमार, विद्युत्कुमार, सुपर्णकुमार, अग्निकुमार बातकुमार, स्तनितकुमार उदधिकुमार, द्वीपकुमार और दिवकुमार के भेद से दस प्रकार के भवनवासी देव हैं। इनकी वेश-भूषा, शस्त्र, थान वाहन और क्रीड़ा आदि कुमारों के समान हैं इसलिए सब भवनवासियों में कुमार शब्द है । रत्नप्रभा पृथ्वी के पंकबहुल भाग में असुरों के भवन हैं और खरभाग में शेष नौ प्रकार के भवन हैं । " जिनका नानाप्रकार के देशों में निवास है वे व्यन्तरदेव हैं । वे आठप्रकार के हैं किन्नर, किम्पुरुष, महोरग, गन्धर्व, यक्ष, राक्षस, भूत और पिशाच । रत्नप्रभा पृथ्वी के खरभाग में सातप्रकार के व्यन्तरों के तथा पंकबहुल भाग में राक्षसों के श्रावास हैं। ज्योतिर्बंध होने के कारण इनकी ज्योतिषी संज्ञा है । सूर्य, चन्द्रमा, ग्रह, नक्षत्र और प्रकीक ये पाँच प्रकार ज्योतिषी देवों के हैं ।
१. सिद्धान्तचक्रवर्ती श्रीमदभयचन्द्र सूरि कृत टीका । २. स्वामितकेयानुप्रेक्षान्तर्गत मे ६९ । ३. प्र. पु. १ पृ. ३३६ ॥ ४. स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा संसार भावना (त. सू. प्र. ४ सु. १ ) ६. सर्वार्थसिद्धि ४ / १० । ७. सर्वार्थसिद्धि ४ / ११ ।
संसार भावना गाया ५८ ५. "देवाश्चतुशिकायाः "