Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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२१२/मो. सा. जीवकाण्ट
गाथा १५२
भूमिभाग से ७९० योजन ऊपर जाकर नौ सौ योजन तक ज्योतिषीदेवों से व्याप्त नभःप्रदेश ११० योजन मोटा और घनोदधि वातवलय पर्यन्त असंख्यात द्वीप-समृद्र तक विस्तृत लम्बाई वाला है।' जो विशेषतः अपने में रहने वाले जीवों को पुष्मात्मा मानते हैं के दिमान हैं और दोन विमानों में होते हैं, वे वैमानिक हैं। कल्पोपपत्र और कल्पातीत के भेद से वे दो प्रकार के हैं। कल्पोपपन्न में १६ स्वर्ग हैं--सौधर्म, ऐशान, सानत्कुमार, माहेन्द्र, ब्रह्म, ब्रह्मोत्तर, लान्तव, कापिष्ठ, शुक्र, महाशुक्र, प्रतार, सहस्रार, ग्रानत, प्राणत. पारण और अच्युत । इन १६ स्वर्गों में १२ इन्द्र होते हैं क्योंकि मध्य के पाठ स्वर्गों में चार इन्द्र होते हैं। इनके ऊपर नौ ग्रेवेयक, नवअनुदिश और विजय, वैजयन्ल, जयन्त, अपराजित, सत्रार्थसिद्धि ये पांच अनुत्तर विमान हैं। इन सबकी कल्पातीत संज्ञा है, क्योंकि इनमें मब अहमिन्द्र होते हैं।
देवगति में एक जीव के रहने का काल जघन्य से १० हजार वर्ष है, क्योंकि तिर्यंच या मनुष्यों से निकलकर जघन्य आयु वाले देवों में उत्पन्न होकर वहां से च्युत होने वाले जीव के १० हजार वर्ष मात्र काल देवगति में पाया जाता है। अधिक से अधिक तंतीस मागरोपम काल तक जीव देवगति में रहना है, क्योंकि तैतीस सागर की देवायु बाँधकर सर्वार्थसिद्धि विमान में उत्पन्न होतर तैतीस सागरोपम काल तक वहां रहकर निकले हुए जीव के उक्त काल पाया जाता है।
शङ्का -दीर्घायु स्थितिवाले देवों में सात-पाठ भवों का ग्रहण करने से और भी अधिककाल देवगति में पाया जा सकता है।
समाधान- नहीं पाया जा सकता। देव, नारकी, भोगभूमिज तियंत्र और भोगभूमिज मनुष्य, इनके मरने पर ठीक तत्पश्चात् उसी पर्याय में उत्पत्ति नहीं पाई जाती, क्योंकि इसका अत्यन्ताभाव
एक जीव का देवगति से जघन्य अन्तर अन्तमुहूर्त काल तक होता है, क्योंकि देवगति से प्राधर गोपक्रान्तिक पर्याप्त तिर्यचों या मनुष्यों में उत्पन्न होकर पर्याप्तियां पूर्णकर देवायु बांध पुन: देवों में उत्पन्न हुए जीव के देवगति से अन्नमुहत अन्तर पाया जाता है। अधिक से अधिक असंख्यात पुद्गल परिबर्तन प्रमाण अनन्त काल तक अन्तर होता है, क्योंकि देवगति से आकर शेष तीन गतियों में अंगुल के असंख्यातवें भाग मात्र पुद्गल परिवर्तन काल तक पग्भ्रिमरण करके पुनः देवगति में उत्पन्न होने में कोई विरोध नहीं है।
सिद्धगति का स्वरूप *जाइजरामरणभया, संजोगविजोगदुक्खसण्णाभो ।
रोगादिगा य जिस्से, ण संति सा होदि सिद्धगई ॥१५२॥ गाथार्थ - जहाँ जन्म, जरा, मरण, भय, संयोग, वियोग, दुःख, संज्ञा और रोगादिक नहीं होते वह सिद्धगति है ।।१५२।।
विशेषार्थ--गतिमार्गणा के अन्तर्गत सिद्धों के स्वरूप का कथन होने के कारण यद्यपि गाथा
१. सर्वार्थसिद्धि ४/१२ । २. सर्वार्थ सिद्धि ४/१६ मे १६ । ३. व. पु. . १२७ सूत्र २६-२७ की टीका। ४, .पु. ७ पृ. १८६-६०। ५. प.पु. १ पृ. २०४ तथा प्रा.पं. सं. (मानपीठ) पृ. १४ गा. ६४, पृ. ५७६ गा. ६५ ।