Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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२१०/गो, सा. जीवकाण्ड
गाथा १५१ गुणास्थान सम्भब हैं, किन्तु महिलाओं के तीन हीन संहनन' व पांच गुणस्थान' ही हो सकते हैं, अतएव उनके संयम की उत्पत्ति नहीं हो सकती ।
शङ्का-मनुष्यिनियों में चौदहगुणस्थान होते हैं, यह कथन कैसे सम्भव है ?
समाधान नहीं, क्योंकि भावस्त्री युक्त मनुष्यगति में चौदह गुणस्थानों का सद्भाव मान लेने में कोई विरोध नहीं पाता।
शङ्का- बादर कषाय नाँव गुणस्थान के ऊपर भाववेद नहीं पाया जाता है, इसलिए भाववेद में चौदह गुणस्थानों का सद्भाव नहीं पाया जाता है। [ अनिवृत्तिगुरणस्थान में वेदोदय की व्युच्छित्ति ही जान पर अवेद अवस्था हो जाती है । सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थान से लेकर प्रयोगकेवली गुणस्थान तक पाँच गुणस्थान प्रवेदी के होते हैं । ]
समाधान नहीं, क्योंकि यहाँ पर वेद को प्रधानता नहीं है, किन्तु गति प्रधान है और वह गति पहले नष्ट नहीं होती।
शङ्का--यद्यपि मनुष्यगति में चौदहगुणस्थान सम्भव हैं फिर भी उसे वेद विशेषण से युक्त कर देने पर उसमें चौदह गुणस्थान सम्भव नहीं हो सकते हैं ?
समाधान-नहीं, क्योंकि विशेषरण के नष्ट हो जाने पर भी उपचार से उस विशेषण युक्त संज्ञा को धारण करने वाली मनुष्यगति में चौदह गुणस्थानों का सदभाव मान लेने में कोई विरोध नहीं पाता है।
देवों का स्वरूप दोव्वंति जदो पिच्चं, गुणेहि अट्ठ हि दिव्यभावेहिं ।
भासंत विश्वकाया, तह्मा ते वणिया देवा ॥१५॥ गाथार्थ -जो दिव्य भाव युक्त पाठ गुणों से निरन्तर क्रीड़ा करते हैं और जिनका शरीर प्रकाशमान व दिव्य है, वे देव कहे गये हैं ।। १५१।।
विशेषार्थ-जो अणिमा आदि पाठ ऋद्धियों की प्राप्ति के बल से क्रीड़ा करते हैं, वे देव हैं। देवों की गति देवगति है। अथवा जो अणिमादि ऋद्धियों से युक्त 'देव' इस प्रकार के शब्द, ज्ञान और व्यवहार में कारणभूत पर्याय का उत्पादक है, ऐसे देवगति नामकर्म के उदय से उत्पन्न हुई पर्याय को देवगति कहते हैं । यहाँ कार्य में कारण के उपचार से यह लक्षण किया गया है।
जो देवपर्याय के कारण अणिमा आदि आठगुणों (ऋद्धियों के द्वारा बीड़ा करते हैं, तीनों लोकः (ऊर्वलोक, मध्यलोक, अधोलोक) में परिवार सहित बिना रुकावट के विहार करते हैं,
१. गो. क. गाथा ३२ । २. "सवासरत्वादप्रत्यारूपानगुणस्थितिनां संयमानुपपत्तेः ।" (प. पु. १ पृ. ३३३)। ३. प. पु. १ पृ. ३३३ । ४. श्र.पु. १ पृ. २०३ । प्रा. पं. स(सानपीठ)पृ. १३ गा. ६३ ; पृ. ५७६ गा. ६४ किन्तु 'दिवंति' के स्थान पर कीडंति पाठ है। ५. ध, पु. १ पृ. २०३ ।