Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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गतिमागंणा / २०६
मनुष्य श्रायुबन्ध के बिना जीव मनुष्यों में उत्पन्न नहीं हो सकता । अल्पारम्भ और अल्पपरिग्रह में सन्तोषी प्राणी मनुष्य - श्रायु का बन्ध करता है ।"
गाया १५०
मनुष्यगति ही ऐसी गति है जिसमें चौदह गुणस्थान सम्भव हैं, अन्य तीन गतियों में चौदह गुणस्थान सम्भव नहीं हैं ।
मनुष्य पर्याय सर्वश्रेष्ठ है, क्योंकि देव भी यह चाहता है कि मैं कब मनुष्य होऊँ और संयम धारण कर सिद्ध अवस्था को प्राप्त करूँ, किन्तु खेद है कि मनुष्य इस अमूल्य पर्याय को पाकर भी विषयभोगों के लिए देवगति की वांछा करता है जहाँ संयम धारण नहीं हो सकता ।
तियंवों तथा मनुष्यों के अवान्तर भेट
सामगा पंचिदी, पज्जता जोणिखी अपज्जत्ता |
तिरिया गरा तहा वि य, पंचिदियभंगदो होला ।। १५० ।।
गाथार्थ - सामान्य तियंच, पंचेन्द्रिय तिर्यच, पंचेन्द्रियतिर्यंच पर्याप्त, पंचेन्द्रिय तिर्यचयोनिनी, पंचेन्द्रियतियंच लब्ध्यपर्याप्तिक इस प्रकार तिर्यंचों के पाँच भेद हैं। इसी प्रकार मनुष्यों के भी भेद हैं, किन्तु पंचेन्द्रिय भंग नहीं होता ।। १५० ।।
विशेषार्थ - तिर्यंचगति में एकेन्द्रिय से पंचेन्द्रिय तक जीव होते हैं। सामान्य तिर्यंच में उन सर्व जीवों का ग्रहण हो जाता है। एकेन्द्रिय व विकलेन्द्रिय तिर्यत्र नरकायु, देवायु, देवगति, नरकगति, देवगत्यानुपूर्वी, नरकगत्यानुपूर्वी वैक्रियिकशरीर, वैऋियिक गोपांग का बन्ध नहीं कर सकते, किन्तु पंचेन्द्रिय तिर्यंच इन कर्मप्रकृतियों का बन्ध कर सकते हैं। एकेन्द्रिय से चतुरिन्द्रिय तक के तिर्यधों में एक मिध्यात्वगुणस्थान होता है, किन्तु पंचेन्द्रिय तिर्यंचों में पाँच गुणस्थान सम्भव है । इत्यादि विशेषताओं के कारण पंचेन्द्रिय तिर्यत्रों का पृथक भेद किया गया है। पंचेन्द्रिय तिर्यंच पर्याप्त व लब्ध्यपर्याप्त दोनों प्रकार के होते हैं। पर्याप्त पंचेन्द्रिय तिर्यवों में तीन वेद होते हैं। गर्भंज व सम्मूर्च्छन दोनों प्रकार के होते हैं, किन्तु लब्ध्यपर्याप्तक सम्मूच्छेन जन्मवाले तथा नपुंसकवेदी ही होते हैं । अतः पंचेन्द्रिय नियंत्रों के भी पर्याप्त व लब्ध्यपर्याप्त ऐसे दो भेद हो गये। पंचेन्द्रिय तिर्यंचपर्याप्त में सम्यग्दृष्टि जीब उत्पन्न हो सकता है, किन्तु योनिनी पंचेन्द्रिय तिर्यचों में सम्यग्वष्टि जीव उत्पन्न नहीं हो सकता, इत्यादि कारणों से पंचेन्द्रिय तिर्यंच योनिनी पृथक् भेद कहा गया है ।
मनुष्यों में सभी पंचेन्द्रिय होते हैं एकेन्द्रिय आदि जीव नहीं होते, अतः मनुष्यों में पंचेन्द्रियरूप पृथक् भेद नहीं कहा गया । मनुष्यों में चार भेद ही होते हैं- मनुष्य मनुष्यपर्याप्त मनुष्यिती और लब्ध्यपर्याप्त मनुष्य | जिसप्रकार तियंत्रों में इन भेदों के कारण कहे गये हैं, वे ही काररण मनुष्यों के भेदों में भी जानना चाहिए। मनुष्यनी से प्रयोजन भावमनुष्यिती से है । कर्मभूमि में ही वेद-वैषम्य है । जो द्रव्य से तो पुरुषदेवी हैं अर्थात् जिनके शरीर की रचना तो पुरुषों के शरीर के समान है, किन्तु भाव स्त्री जैसे हैं वे मनुष्यनियों ही में ग्रहण किये गये हैं। मनुष्यिनियों के छहों संहनन व चौदह
१. "पारम्भपरिग्रहत्वं मानुषस्य " ( त. सू. प्र. ६ ) ।