Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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गाया १४३
गतिमार्गणा/२०७
गुणस्थान ही रहता है ।'
शङ्का - भार्यखण्ड में उत्पन्न हुए क्या सभी पुरुष दीक्षा लेकर मोक्ष जा सकते हैं ?
समाधान - श्री कुन्दकुन्दाचार्य ने प्रवचनसार गाथा २२४ / १० में व श्री जयसेनाचार्य ने उसकी टीका में इसप्रकार कहा है "यण्णेसु तीसु एक्को" जो ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य इन तीन वर्णों में से एक हो “कल्लागो" नीरोग शरीरधारी हो “तयोसहो वयसा" तप करने में समर्थ हो, प्रतिवृद्ध व प्रतिबाल न होकर योग्य वय सहित हो। "सुमुहो" जिसके मुख का भाग भंग-दोष रहित निर्विकार हो तथा इस बात का बतलाने वाला हो कि इसके भीतर निर्विकार परम चैतन्य परिरति शुद्ध है । "कुछ रहिदो" जिसका लोक में दुराचारादि के कारण से कोई अपवाद न हो, “लगगहणे हववि जोगी" ऐसा गुणधारी पुरुष ही जिनदीक्षा ग्रहण करने के योग्य होता है ।
इससे यह सिद्ध होता है कि प्रखण्ड में उत्पन्न हुए सभी पुरुष दीक्षा ग्रहणकर मोक्ष नहीं जा
सकते ।
मनुष्यगति के दुःख - 'स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा' संसारभावना के आधार से जब यह जीव माता के गर्भ में खाता है तब वहाँ इसके श्रङ्ग - उपाङ्ग संकुचित रहने के कारण यह घोर दुःख सहता है और जन्म के समय योनि से निकलते हुए भी इसे तीव्र दुःख सहना पड़ता है। बचपन में माता-पिता मर जाते हैं तो दुःखी होता हुआ दूसरे के उच्छिष्ट भोजन से पलता है और भिखारो बनकर जीवन बिताता है। दुष्कर्मों- बुरे कार्यों को करके पापकर्मों को बाँधता है और उन पापकर्मोदय से दुःख भोगता है । आश्चर्य है कि मनुष्य फिर भी हिंसा यादि पाप करता है, दान पूजन तपश्चरण ध्यान यदि पुण्यकार्य नहीं करता। बिरले पुरुष ही वेवक या क्षायिकसम्यग्दृष्टि होकर श्रावक के १२ व्रतों को या पाँच महाव्रतों को धारणकर विशुद्ध परिणामसहित निन्दा-गर्दा करते हुए पुण्य का उपार्जन करते हैं । [अपने दुष्कृत्यों को स्वयं कहना निन्दा है । गुरु के सामने अपने दोषों को कहना गर्दा है । ] " पुण्यशाली मनुष्यों के प्रर्थात् पुण्योदय सहित मनुष्यों के भी धन, धान्य, पुत्र, स्त्री, मित्र आदि इष्ट पदार्थों का वियोग और सर्प, कण्टक व शत्रु आदि अनिष्ट पदार्थों का संयोग देखा जाता है। श्री श्रादिनाथ तीर्थंकर के पुत्र प्रथम चक्रवर्ती भरत समर्थ होते हुए भी छोटे भाई श्री बाहुबली से पराजित होकर अपमानित हुए। बहुत पुण्यवान को भी पंचेन्द्रियों की विषय भोगरूप समस्त सामग्री व धनधान्यादि नहीं मिलते। अल्प पुण्यवाले व पुण्यहीन पुरुषों को तो मिलता ही नहीं । समरत वांछित पदार्थ प्राप्त हो जाये ऐसा पुण्य किसी के पास नहीं है। कोई मनुष्य स्त्री न होने के कारण दुःखी है और यदि किसी के स्त्री भी है तो पुत्र की उत्पत्ति न होने के कारण दुःखी है और यदि किसी के पुत्र भी हो जावे तो अनेक शारीरिक रोगों के कारण दुःखी है। यदि शरीर भी स्वस्थ नीरोग है तो धन-धान्यादि सम्पत्ति के प्रभाव के कारण दुःखी है। यदि सम्पति भी है तो बाल्यावस्था या युवावस्था में मरा हो जाने के कारण दुःखी है । कोई दुष्ट स्त्री के कारण दुःखी है, कोई जुहारी, मांसभक्षी, मद्यपयादि दुर्व्यसनी पुत्र के कारण दुःखी है । किसी का भाई या कुटुम्बी वैरी है, किसी की पुत्र दुराचारिणी है अतः वे इन कारणों से दुःखी हैं। कोई सुपुत्र मर जाने के कारण, कोई प्रियस्त्री के
१. "सम्बमिलिच्छ स्वयं प्रकाशनं निन्दनम् गर्हणं गुरुसाक्षिकात्मदोषप्रकाशनं " [ स्वा. का. गा. ४८]
मिति. प. स. प्र. गा. २६३७] । २. गा. ४५ से ५७ | ३. ग्रात्मकृतदुष्कर्मणः