Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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२०६/गो. सा. जीव काण्ड
गाथा १४६
त्याग करके उपवासादि नप धारण नहीं कर सकते। निर्जरा का मुख्य कारण तप है ।'
शङ्का - तिर्यंच मोक्ष क्यों नहीं जाते ?
समाधान-तियचों के नीचगोत्र का ही उदय है और जिनके नीचगोत्र का उदय होता है वे भी संयम धारण नहीं कर सकते ।
शङ्का-क्या सभी मनुष्य मोक्ष जा सकते हैं ? समाधान----कर्मभूमिज मनुष्यों को ही मोक्ष होता है. भोगभूमिज मनुष्यों को मोक्ष नहीं होता।
शङ्खा --भोगभूमिज मनुष्यों के वज्रर्षभनारात्रसंहनन भी होता है और तीन शुभ लेण्या भी, फिर उनको मोक्ष क्यों नहीं होता?
समाधान-भोगभुमिज मनुष्यों को प्राहारपर्याय नियत है। उत्तम भोगभूमिज मनुष्य तीन दिन के पश्चात् आहार करते हैं, मध्यम भोगभूमिज दो दिन के पश्चात् और जघन्य भोगभूमिज एक दिन के अन्तराल से आहार करते हैं। वे अपने नियतकाल से पूर्व पाहार नहीं कर सकते और नियत काल का उल्लंघन भी नहीं कर सकते अर्थात नियतकाल पर भोगभूमिज को प्रहार अवश्य ग्रहण करना पड़ता है इसलिए वे संयम धारण नहीं कर सकते। संयम बिना मात्र सम्यग्दर्शन व ज्ञान से मुक्ति नहीं हो सकती। श्री कुन्दकुन्दाचार्य ने भो प्रवचनसार में कहा है.-"सहहमारणो अस्थे असंजदो वा ण णिव्यादि ॥२३७॥" पदार्थों का श्रद्धान करने वाला भी यदि असंयत हो तो निर्वाण को प्राप्त नहीं होता। यह जीन श्रद्धान और ज्ञान सहित भी है परन्तु पौरुष के समान चारित्र के बल से रागद्वेषादि विकल्परूप असंयमभाव से यदि अपने को नहीं हटाता है तो ज्ञान और श्रद्धान इसका क्या हित कर सकते हैं ? अर्थात् ज्ञान और श्रद्धान इस जीव का कुछ भी हित नहीं कर सकते। इसलिए संयम से शुन्य ज्ञान व श्रद्धान से सिद्ध अवस्था प्राप्त नहीं होती।
शा-कर्मभूमिज मनुष्यों में क्या सभी मोक्ष जा सकते हैं ?
समाधान-द्रव्यस्त्रियाँ मोक्ष नहीं जा सकती, क्योंकि उनके वस्त्रों का त्याग नहीं बन । सकता ।
शङ्का-क्या सभी पुरुष मोक्ष जा सकते हैं ?
समाधान-कर्मभूमि क्षेत्र में छहखण्ड होते हैं। उनमें से एक प्रार्यखण्ड और पाँच म्लेच्छखण्ड होते हैं। म्लेच्छन्त्रण्ड में उत्पन्न हुए पुरुषों को मोक्ष नहीं होता। सब म्लेच्छखण्डों में एक मिथ्या
१. "तपसा निर्जरा " [त. सू. अ. E मू. ३]। २. "अयं जीवः श्रद्धानज्ञानमहितोऽपि पौरुपस्थानीय चारित्रवलेन रागादिबिकल्पादसंयमाद्यदि न निवर्तते तदा तस्य श्रद्धानं ज्ञान वा कि कुर्यान किमपि"[प्र. सा. गा. २३७ ता. व.] । "असंवतस्य च यथोदितात्मतत्त्वप्रतीलिरूप श्रद्धान यथोदितात्मतत्त्वानतिरूपं शानं वा कि कुर्यात ।" [प्र. सा. गा. २३७ की अमृतचन्द्राचार्य कृत टीका] । ३. ततः संयमशून्यात् श्रानात् ज्ञानाद्वा नास्ति सिद्धिः [वहीं । ४. "भावासंयमविना भाविवस्वादिउपादानान्यथानुपपरोः ।" [ध. पु. १ पृ. ३३३] ।