Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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२०२/गो. सा. जीवकाण्ड
गाथा १४%
तिवंचर्गात का स्वरूप तिरियति कुडिलभावं, सुविउलसण्णा गिगिट्टिमण्णाणा ।
अच्चतपावबहुला, तह्मा तेरिच्छया भरिगया ।।१४८।। गायार्थ—जो मन-वचन-काय की कुटिलता को प्राप्त हैं, जिनके आहारादि की संज्ञा सुव्यक्त है, जो निकृष्ट अज्ञानी हैं और जिनके अत्यधिक पाप की बहुलता पायी जाती है, वे तिर्यंच' कहे गये हैं ।।१४८।।
विशेषार्थ -समस्त जाति के तिर्यनों में उत्पत्ति का जो कारण है. बह तिर्यंचगति है। अथवा तियंचगति नामकर्म के उदय से प्राप्त तियंच पर्यायों का समूह बह तिर्यंचगति है। अथवा तिरस्, चक्र, कुटिल ये तीनों शब्द एकार्थवाची हैं अत: जो कुटिलभाव को प्राप्त होते हैं, वे तिर्यंच हैं। तिर्यचों की गति तिर्यंचगति है ।
तिर्यंचों को जो सुख-दुःख होता है वे उसको अपने मन में सहन कर लेते हैं। वचनों के द्वारा दुसरों को प्रकट नहीं कर सकते या सुख-दुःख में भाग लेने के लिए दूसरों को बुला भी नहीं सकते। मुख में जो वृत्ति होती है बहू काय से नहीं करते । यद्यपि मुशिक्षित लोता मैना प्रादि संजी पंचेन्द्रिय तिर्यचों में से किसी के मन-वचन-काय की ऋजु प्रवृत्ति होती है तथापि एकेन्द्रिय से लेकर असंज्ञ पंचेन्द्रिय तियच तक व प्रशिक्षित-संजी पंचेन्द्रिय तिर्यंच प्रायः मन-वचन-काय के कुटिल भावों में प्रवर्तते हैं। मनुष्य एकान्तक्षेत्र में व नियतकाल में भोजन, मैथुन आदि क्रिया करता है, किन्तु मनुष्यों के समान नियंत्रों की ये क्रियाएँ गढ़ क्षेत्र में नहीं होती, सुविवत स्थान में प्रकट रूप से होती हैं। मनुष्यों के समान तिर्यंचों में गुण दोष का विवेफ, नित्यथुताभ्यास व तत्त्वज्ञानादि शुभोपयोग नहीं होता इसलिए तिर्थचों को अज्ञानी कहा गया है। तियंत्रों में महाव्रत, गुण व शील का अभाव होने से और एकेन्द्रियादि में सम्यग्दर्शनादि शुभोपयोग का अभाव होने से तीवसंक्लेश परिणामों की प्रचुरता होने से तिर्यचों में अत्यन्त पापबहुलता कहना युक्त ही है।'
तिर्यचगति के दुःखों का वर्णन स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा में गाथा ४० से ४३ में इस प्रकार है
"अनेक प्रकार के तिर्यंचों में जन्म लेकर वहाँ गर्भावस्था में भी छेदन आदि के दुःख पाता है। एकेन्द्रिय, विकलत्रय संज्ञी-असंज्ञी पंचेन्द्रिय आदि नाना प्रकार के तिर्यचों में उत्पन्न होकर गर्भ व सम्मुर्छन जन्म में छेदन, शीत, उष्ण, भूख, प्यास आदि के दुःख पाता है। तिर्यंचों में सर्वत्र भौतिकृत भयानक दुःखों को महता है। बलवान व्याघ, सिंह, भाल, बिलाव, कुत्ता, मगरमच्छ मादि बलहीन तिर्यंचों को मार डालते हैं, भक्षरण पर जाते हैं। म्लेच्छ, भील, धीवर आदि पापी दुष्ट मनुष्यों के द्वारा मारा जाता है। सर्वत्र भयभीत होकर मारा-मारा फिरता है । तिर्यच परस्पर एक दूसरे को खा जाते हैं अतः दारुण दुःखों को सहते हैं। भूख, प्यास ताड़न, मारण, वध, बन्धन,
१. ध, पु. १ पृ. २०२ पर भी यह गाथा कुछ पा भेदठ के साथ है। तद्यया—'सुविटल' के स्थान पर 'सुवियर्ड' और 'भगिया' के स्थान पर 'णाम पाठ है । प्रा. पं. सं. पृ. ५७६ गा. ६२, वहां भी 'सुवियर्ड' पार है। 'गिग मिटि के स्थान पर 'गिगट्ठ' गाठ है। २. घ. पु. १ पृ. २०२। ३. श्रीमदभषचन्द्रसूरि कृत टीका।