Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
View full book text
________________
-...:
गाथा १४७
गतिमार्गग्गा/२०१
चारी जीव नरक में उतान्न होते हैं। बहत प्रारम्भ और बहन परिग्रह वाले जीव नरकायु बाँधते हैं और मरकर नरकों में उत्पन्न होते हैं । मूर्छा ही परिग्रह है।
नारकी जीव असंथात है जो प्रसन्ध्यात जगधेगीप्रमाण है । प्रथम नरक में सबसे अधिक नारकी हैं और द्वितोयादि नरकों में प्रथम नरक के असंख्यातवें भाग नारको हैं। एक जीव की प्रपेक्षा कम से कम अन्तमुहर्त काल तक नरकगति वारकी जीव का प्रचार होता है, क्योंकि नरक से निकलकर गोपक्रान्तिक तिर्यंच अथवा मनुष्यों में उत्पन्न होकर सबसे कम प्रायु के भीतर नरकायु बाँधकर मरकर पुनः नरक में उत्पन्न होने वाले जीव के नरकगति से अन्तम टूर्त प्रस्तर पाया जाता है। अधिक से अधिक असंख्यात पुद्गलपरिवर्तन प्रमाण अनन्तकाल तक नरवगति में नारको जीव का अन्तर होता है, क्योंकि नरक से निकलकर अविवक्षित गतियों में व एकेन्द्रियों में प्रावली के असंख्यातवें भागप्रमारण पुद्गल परिवर्तन काल तक परिभ्रमण करके पुनः नरक में उत्पन्न होने पर यह अन्तरकाल पाया जाता है ।
मिथ्याष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यमिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि इन चार गुणस्थानों में नारकी होते हैं ।६ सासादनगुणस्थान के साथ नरक में उत्पत्ति का विरोध है ।" सम्यग्दृष्टि (क्षायिक या कृतकृत्यवेदक सम्यग्दृष्टि ) मरकर प्रथम पृथ्वी (नरक) में उत्पन्न होते हैं, किन्तु द्वितीयादि पृथिवियों (नरकों) में सम्यग्दृष्टि उत्पन्न नहीं होते।
प्रथम नरक तक प्रसंज्ञी, द्वितीय नरक तक सरीसर, तीसरे नरक तक पक्षी, चौथे नरक तक भजंगादि, पानवे नरक तक सिंह, छटे नरक तक स्त्री, सालब नरक तक मत्स्य एवं मनुष्य उत्पन्न होते हैं।
नरक से निकले हुए जीव गर्भज, कर्मभूमिज. संजी एवं पर्याप्त मनुष्य या ति मन्त्रों में हो जन्म लेते हैं, किन्तु सातवें नरक से मिथ्यात्य सहित ही निकलता है और तिर्यंचों में उत्पन्न होता है। नरक से निकलकर जीव नारायण, प्रतिनारायण, बलभद्र और चक्रवर्ती नहीं होते, किन्तु प्रथमद्वितीय व तृतीय नरक से निवलकर तीर्थकर हो सकता है । चतुर्थ नरक से निकलकर चरमशरीरी, पाँचवें से निकलकर संयमी, छठे नरक से निकलकर देशवती, सान से निकलकर बिरले ही सम्यक्त्व को धारण करते हैं। प्रथमादि तीन नरकों में कोई जातिस्मरण से, कोई दुर्वार वेदना से और कोई देवों द्वारा धर्मोपदेण से सम्यग्दर्शन को ग्रहण करते हैं। शेप चार नरकों में नारको जातिस्मरण और वेदनानुभव से सम्यग्दर्शन को ग्रहण करते हैं। इन चार नरकों में देवकृत धर्मोपदेष्टा नहीं है. क्योंकि देवों का गमन तीसरे नरक तक ही होता है, उससे नीचे नहीं। विशेष. . ध. पृ. ६ गति-प्रागति चूलिका के कथन में पृ. ४८४ सूत्र २०५ में श्री भूतवली प्राचार्य ने लिखा है कि मानवे नरक से निकलकर सम्यक्त्व या सम्यग्मिथ्यात्व प्राप्त नहीं करता है ।
नारकी जीव संजी पंचेन्द्रिय पर्याप्तक होते हैं तथा उनके वैऋिषिक शरीर होता है।
१. तिलोयपालि दुसरा अधिकार । २. त.म.प्र.६। ५. घ.पु. ७ पृ. १८७-८ । ६. प.गु. १ पृ. २०४ सूत्र २५। १. ति. प. दुसरा अधिकार ।
३. त.मू. प्र. ७ ४. घ.. ७ पृ. २४५ । ७. प.पु. १ पृ. २०५ । ८, प. पु. १ पृ. २०७1