Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
View full book text
________________
२००/गो. मा. जीवकाण्ड
गाथा १४७ को सहन करता है। अन्यगति के दुःखों से भी नरकगति के दुःख अधिक हैं। असुरोदीरित दुःख, शारीरिक दुःख, मानसिक दुःख, क्षेत्रजनित दुःख, परस्परोदीरितदुःख ये पाँच प्रकार के दुःख हैं। नरकों में अशुभ अपृथक् विक्रिया होती है। नारकी बारण प्रादि आयुधों की तथा बज्राग्नि आदि की अपने से अपृथक् विक्रिया करते हैं। वे नारकी अग्नि, बायु, शिला, वृक्ष, क्षारजल और विष आदि के स्वरूप को प्राप्त होकर एक दूसरे को भयानक कष्ट पहुंचाते हैं। वे नारकी व्याघ्र, गिद्ध, चील, काक, चक्रवाक, भेड़िया और कुत्ता इत्यादि हिंसक जीव रूप विक्रिया करके परस्पर दुःख देते हैं । नारकी वध, बन्धन आदि बाधाओं से तिल-तिल बराबर छेदन करने से ताड़न, भक्षण
आदि द्वारा दूसरे नारकी को सताकर सन्तुष्ट होते हैं। नरक भूमि तपे हुए लोहे के समान स्पर्श युक्त, छरा के समान तीक्ष्ण बाल से संयुक्त, सुई के समान नुकीले तृणों से व्याप्त होती है जिसके स्पर्शमात्र से हजारों बिच्छ्रों के काटने वी वेदना से भी अत्यन्त दुःसह वेदना होती है। नरकों में चारों ओर ज्वालासों एवं विस्फूलिगों से व्याप्त अंगवाली लोहे सदृश प्रतिमाएँ,छरी व बाण आदि के समान तीक्ष्या पत्तों वाले असिपत्र वन, सैकड़ों गुफाओं एवं यंत्रों से उत्कट ऐसे भयानक वेतालगिरि, अचिन्त्य कूट शाल्मलि, वैतरणी नदियाँ तथा उलकों के खन से दुर्गन्धित एवं करो कीडों के समूह से व्याप्त ऐसे तालाब हैं जो कातर नारकियों के लिए दस्तर हैं। अग्नि से भयभीत होकर दौड़ते हुए वे नारवी वैतरणी नदी पर जाते हैं और शीतलजल समझकर उसके खारे जल में जा गिरते हैं। उस खारे जल से शरीर में दाहजनित पीड़ा का अनुभव करने वाले बे नारकी वेग से उठकर छाया की अभिलाषा से असिपत्र वन में प्रविष्ट होते हैं, वहाँ पर भी वे गिरने वाले असिपत्रों के द्वारा छेदे जाते हैं। असिपत्रों के द्वारा उन नारकियों के पैर, भुजाएँ, कन्धे, कान, होंठ, नाक, सिर आदि छिन्न-भिन्न हो जाते हैं। नरकों में शीत व उष्ण की वेदना असह्य होती है। वहाँ की पृथ्वी दुःसह दुःखों को देने वाली है। नरकों में क्षुधा, तृषा और भय के कष्ट का वेदन निरन्तर हुआ करता है। नरकों में उबलते (खौलते) हुए जल से परिपूर्ण काडाहे, जलते हुए विचित्र सूल और बहुत सी भट्टियों ऐसे बहुत से यातना के साधन स्वभाव से भी प्राप्त होते हैं और विक्रिया द्वारा भी बनाये जाते हैं।
"प्रथम तीन नरकों में कुमार्गगत चारित्रबाले अर्थात् दुष्ट आचरण करने वाले असुरकुमार देव भी उन नारकियों को अत्यन्त बाधा पहुँचाते हैं, उन नारकियों को परस्पर में लड़ाकर आनन्द को प्राप्त होते हैं। नारकी जीवों को इष्ट वस्तुओं का लाभ न होने से अनिष्ट वस्तुओं का संयोग होने से तथा अपमान व भय के कारण महान् मानसिक दुःख होता है। नारकी जीवों के शरीर के तिल प्रमाण खण्ड हो जाने पर भी वे मरण को प्राप्त नहीं होते। उनका अकालमरण नहीं होता। उनके शरीर के खण्ड पारे के समान बिखर कर पुनः जुड़े जाते हैं।' नारकियों के शरीर में अनेक प्रकार के रोग निरन्तर रहते हैं। अन्य भव में जो स्वजन था नरक में वह भी कुपित होकर दुःख देता है। नरकों के एक समय के दुःख भी हजारों जिह्वानों द्वारा कहे नहीं जा सकते ।"
जो मद्य पीते हैं, मांसभक्षण करते हैं, जीवों का घात करते हैं, शिकार करके हर्ष मानते हैं, मोह-लोभ ब क्रोध आदि के कारण असत्य वचन बोलते हैं, काम से उन्मत्त परस्त्री में प्रासक्त, रात-दिन मैथुन सेवन करने वाले, दूसरों को ठगने वाले, परधन हरने वाले, चोरी करने वाले पापा
१.लोकविभाग अष्टम विभाग ।