Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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गाथा १४७
गतिमार्गणा/१६९
या
नगमादि नयापेक्षा नारकी जीवों का कयन करते हुए कहा भी है--
"किसी मनुष्य को पापी लोगों का समागम करते हुए देखकर नैगमनय से कहा जाता है कि मह पुरुष नारकी है ।।१॥ [जब वह मनुष्य प्राणिवध का विचार कर सामग्री का संग्रह करता है तब वह संग्रहनाय से नारकी है। मसहागनम मा नचन इस प्रकार है. जब कोई मनुष्य हाथ में धनुष व बाण लिये मृगों की खोज में भटकता फिरता है तब वह नारकी कहलाता है । ऋजुसूत्रनय का कथन इसप्रकार है-जब पाखेट स्थान पर बैठकर वह पापी मृगों पर प्राघात करता है तब वह नारकी कहलाता है। सम्बनय कहता है कि- जब जन्तु प्राणों से विमुक्त कर दिया जाता है तभी वह प्राधान करने वाला हिंसा कर्म से संयुक्त मनुष्य नारकी है। समभिरूढनय का वचन इसप्रकार है--जब मनुष्य नारक कर्म (नरकायु) वा बंधक होकर नारककर्म से संयुक्त हो जावे तभी वह नारकी कहा जावे। जब वह मनुष्य नरकगति में पहुँचकर नरक के दुःख अनुभव करता है तब वह एयंभूतनय से नारकी
अधोलोक में नीचे-नीचे सात पृथिवियाँ हैं-रत्नप्रभा, शर्कराप्रभा, बालुकाप्रभा, पंकप्रभा, धूमप्रभा, तमःप्रभा और महातम प्रभा। इन सातों पृथिवियों में प्रथम प्रादि सात नरक हैं जिनके नाम क्रम से घर्मा, बंशा, शैला (मेघा), अंजना, अरिष्टा, मघवी और माघवी हैं। उन नरकों में ८४,००,००० बिल हैं जो नारकियों के निवासस्थान हैं। उन नरकों में क्रमशः एक, तीन, सात, दस, सतरह, बाईस और तैतीस सागरोपम उत्कृष्ट आयु है। जघन्य अायु प्रथम नरक में दस हजार वर्ष है, आगे द्वितीय आदि नरवों में पूर्व नरक की एक समय अधिक उत्कृष्ट आयु को उत्तर नरक की जघन्य आयु समझना चाहिए। प्रथम पृथ्वी के नारकी दुर्गन्धयुक्त अपवित्र, अल्प मात्रा में प्राप्त मिट्टी को शीघ्र ही खा जाते हैं। इससे असंख्यातगुणा अशुभ ग्राहार व्रामसे द्वितीय आदि पृथिवियों में जानना जाहिए।
प्रथम नरक में अवधिज्ञान का क्षेत्र एक योजन प्रमाण है। आगे आधे-ग्राधे वोम को हानि होवार सप्तम नरक में वह एक कोस मात्र क्षेत्र रह जाता है। प्रथम आदि चार नरकों में और पांचवें 'अरिष्टा नामक नरक के दो तिहाई अर्थात् दो लाख बिलों में उष्णता की वेदना होती है। पांचवीं प्रथिवी के शेष एक लाख बिलों में तथा छठे-सातवें नरक के (१००००० + ६६६९५+५) दो लाख बिलों में अति शीतवेदना होती है।
प्रथम दो नरकों में कापोतलेश्या, तीसरे-चौ ये नरक में नील व कृष्णलेश्या, छठे नरक में दुःकृष्ण लेश्या और सातवें में महाकृष्ण लेश्या है। प्रथम धर्मा नरक में उत्पन्न हुए नारकी पीड़ित होकर जन्मस्थान से ५०० धनुष प्रमाण ऊपर उछलते हैं तथा शेष नरकों में वे क्रमशः दुने-दूने ऊपर उछलते हैं। उन नरकों में जीवों को पोर, तीव, महाकष्टभीम, भीष्म, भयानक, दारुण, बिपुल, उग्र और तीक्ष्ण दुःस्त्र प्राप्त होता है ।
स्वामि कार्तिकेयानुप्रेक्षा' में नरकों के दुःखों का वर्णन इस प्रकार है - "नरकायु पाप कर्मोदय से जीव भरकों में उत्पन्न होता है और पाँच प्रकार के अनेक दुःखों
१. गा. १ से ६ तक, घ. पू. ७ पृ. २६-२६ ।
२. लोकविभाग का वा विभाग ।
३. गाथा ३४ से ३१ ।