Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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गाथा १४६
गतिमार्गणा/१७
मात्र काल के बीत जाने पर पुन: नियम से मनुष्य अपर्याप्तकों में उत्पन्न होने वाले जीव पाये जाते हैं।"
सासादन सम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिध्याइष्टि जीवों का अन्तर जघन्य से एकसमय है, क्योंकि सासादनसम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यारष्टि गुणस्थानों के जघन्य से एकसमय अन्तर के प्रति कोई विरोध नहीं है । उत्कर्ष से यह अन्तर पल्योपम के असंख्यातवें भागप्रमाण है, यद्यपि सम्यग्मिथ्याष्टियों के अस्तित्व का उत्कृष्टकाल भी पस्योपम के असंख्यातवेंभाग मात्र है, तथापि उससे उनका विरहकाल प्रसंख्यातगुणा होते हुए भी पल्योपम' का असंख्याताभाग है, क्योंकि पल्योपम का असंख्यातवांभाग अनेकप्रकार का है।'
प्रथमोपशम सम्यग्दृष्टियों में विरताविरति (संयतासंयत) नामक पाँचवें गुणस्थानवर्ती जीवों का उत्कृष्ट अन्तर चौदह दिवस है और विरति अर्थात् संयतों का उत्कृष्ट अन्तर पन्द्रह दिवस है। कहा भी है
सम्मत्ते सत्तविणा विरताविरदीए चौद्दस हवंति ।
विरदीसु न पणरसा विरहिद कालो मुणेयग्यो ।३१।।' ___ उपशमसम्यक्त्त्र में सात दिन, उपशमसम्यक्त्वसहित विरताविरति अर्थात् देशयत में चौदह दिन और विरति अर्थात् प्रमत्त-अप्रमत्त महाविरतियों में पन्द्रह दिन प्रमाण जानना चाहिए।
उपशमसम्यग्दृष्टि संयतासंयत का नाना जीवापेक्षा जघन्य अन्तर एकसमय और उत्कृष्ट अन्तर चौदह रात-दिन है। उपशमसम्यग्दृष्टि प्रमत्तसंयतों व अप्रमत्तसंयतों का जघन्य अन्तरकाल एकसमय मात्र है और उत्कृष्ट अन्तर पन्द्रह रात-दिन है ।
___इन गाथाओं द्वारा यह भी ज्ञात हो जाता है कि शेष मार्गणाओं का अन्तर नहीं है, वे निरन्तर हैं। यद्यपि 'अन्तर नहीं है' और 'निरन्तर' ये दोनों गाद अन्तर के अभाव के द्योतक है तथापि 'अन्तर नहीं है' यह शब्द प्रभाव प्रधान है इसलिए यह प्रसज्यप्रतिषेध सम्बन्ध है। 'निरन्तर है यह शब्द अन्तर के प्रभाव के साथ-साथ उनके अस्तित्व को भी सिद्ध करता है अतः यह पयुदास प्रतिषेध है।"
६. गति-मार्गणाधिकार गतिमार्गणा के अन्तर्गत गति शब्द का निरुक्ति अर्थ एवं गति के भेद गइउदयजपज्जाया चउगइगमरणस्स हेउ वाह गई। गारयतिरिक्खमाणुसदेवगइ त्ति य हवे चदुधा ॥१४६।।
.१. प. पु. ७ पृ. ४८१ सूत्र -६-१०। २. ध, पु. ७ पृ. ४६२-६३ सूत्र ६०-६१-६२ । ३. घ. पु. १५ पृ. ४ |
४. ६. पृ. ७ पृ. ४६२ । ५. प. पु. ५ पृ. १६६ सूत्र ३६०-६१ । ६. घ. पु५ पृ. १६७ सूत्र ३६४-६५ । १७. भ. पु. ७ पृ. ४७१ । . . . . . . . . ।