Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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१६६/गो. सा. जीवकाण्ड
गाया १४५
'पढमुवसमसहिदाए, विरदाविरदोए चोद्दसा दिवसा।
विरवीए पण्णरसा, विरहिवकालो दु बोध्यो ॥१४५।। गाथार्थ - उपशम सम्यक्त्व, सूक्ष्मसाम्पराय, आहारकयोग, पाहारकमिश्रयोग, क्रियिकमिश्रयोग, मनुष्य अपर्याप्त, सासादनसम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व ये पाठ अन्तरमार्गणा हैं ।।१४३।। इनका उत्कृष्ट विरहकाल क्रमश: सातदिन, छहमाह, वर्षपृथक्त्व, वर्षपृथक्त्व, बारहमुहूर्त और अन्तिम तीनमार्गणाओं का विरहकाल पल्य के असंख्यातवेंभाग ; प्रथमोपशम सम्यक्त्वसहित विरताविरतपंचम गुरगस्थान का चौदह दिन और सकलसंयम का पन्द्रह दिन है। इन सबका जघन्य अन्तरकाल एकसमय है ।।१४४-१४५।।
विशेषार्थ--अन्तर, उच्छेद, विरह, परिणामान्तरगमन, नास्तित्वगमन और अन्यभावव्यवधान ये मब एकार्थवाची नाम हैं । २ 'रात्रिंदिव' यह दिवस का नाम है, क्योंकि सम्मिलित दिन व रात्रि से दिवस का व्यवहार देखा जाता है। प्रथमोपशमसम्यक्त्व का नानाजीवों की अपेक्षा उत्कृष्ट अन्तर सात दिवस मात्र होता है। यदि कोई भी जीव प्रथमोपशम सम्यग्दृष्टि न हो तो उसका उत्कृष्ट विरहकाल सातदिनस मात्र है हौन धन प्रान्त मात्र है
___ ग्राहारककाययोगी और आहारकमिश्रकाययोगी जीवों का अन्तर जपन्य से एकसमय होता है, क्योंकि एक समय तक आहारक और पाहारक मिश्रकाययोगियों के बिना तीनों लोकों के जीव पाये जाते हैं, उत्कर्ष से अन्तर वर्षपृथवत्व प्रमाण है, क्योंकि पाहारक काययोग और आहारकमिश्रकाययोग के बिना समस्त प्रमत्तसंपतों का वर्षपृथक्त्व काल तक अवस्थान देखा जाता है। आहारककाययोग और पाहार कमिश्र काययोग प्रमत्तसंयत-छठे गुणस्थान में ही होता है।
बैंक्रियिकमिथकाययोगियों का अन्तर जघन्य से एकसमय होता है, क्योंकि सब क्रियिकमिथकाययोगियों के पर्याप्तियां पूर्ण कर लेने पर एकसमय का अन्तर होकर द्वितीयसमय में देवों या नारकियों के उत्पन्न होने पर वैक्रियिकमिश्रकाय योगियों का अन्तर एकसमय होता है। वक्रियिकमिश्रकाययोगियों का अन्तर उत्कर्ष से बारह मुहूर्त है, क्योंकि देव अथवा नारकियों में न उत्पन्न होने वाले जोव यदि बहुत अधिक काल तक रहते हैं तो बारह मुहूर्त तक ही रहते हैं । अर्थात् देवों अथवा नारकियों में अधिक से अधिक बारहमुहूर्त तक कोई भी जीब उत्पन्न न हो, ऐसा सम्भव है।
मनुष्य अपर्याप्त अर्थात् लन्थ्यपर्याप्त मनुष्यों का अन्तर जघन्य से एकसमय है, क्योंकि जगत्श्रेणी के असंख्यातवेंभाग मनुष्य अपर्याप्तकों के मरकर अन्यगति को प्राप्त होने पर एकसमय अन्तर होकर द्वितीय समय में अन्य जीवों के मनुष्य अपर्याप्तकों में उत्पन्न होने पर एक समय अन्तर प्राप्त होता है। मनुष्य अपर्याप्तकों का अन्तर उत्कर्ष से पल्योपम का असंख्यातवांभाग मात्र है, क्योंकि मनुष्य अपर्याप्तकों के मरकर अन्यगति को प्राप्त होने के पश्चात् पल्योपम के असंख्यातवें भाग
१. सम्मत्ते सत्त दिणा विरदाविरदे य बदसा होति । विरदेसु य पण्या रसं बिरहिम काल य बोहब्वो ॥२०॥ (प्रा. पं. सं. जीवममास अधिकार): २. "अन्तरमुच्छेदो विरही परिणामांतरगमणं स्थित्तयमणं अण्णाभावबहाणमिदि एयरो " (ध. पु. ५ पृ. ३) । ३. घ. पु. ७.पू. ४६२ सूत्र ५८-५६ । ४. प. पु.७ पृ. ४८५-४६६ सूत्र २७-२८-२६ । ५. घ. पु. ७ पृ. ४८५ सूत्र २४.-२५-२६ । ।