Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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१९४/गो. सा. जीवकाण्ड
गाथा १४२
संयम-संयमन करने को संयम कहते हैं । ' संयम का इस प्रकार लक्षण करने पर भावचारित्रशून्य द्रव्यचारित्र संयम नहीं हो सकता, क्योंकि 'सं' शब्द से उसका निराकरण हो जाता है।
शङ्का-यहाँ पर यम शब्द से समितियों का ग्रहण करना चाहिए, क्योंकि समितियों के नहीं होने पर संयम नहीं बन सकता?
___ समाधान--ऐसी शङ्का ठीक नहीं है, क्योंकि संयम में दिये गये 'सं' शब्द से सम्पूर्ण समितियों का ग्रहण हो जाता है ।
दर्शन--जिसके द्वारा देखा जाए वह दर्शन है। इससे चक्षु इन्द्रिय और आलोक के साथ अतिप्रसङ्ग दोष भी नहीं आता है, क्योंकि ये आत्मा के धर्म नहीं हैं। (चक्षु से यहाँ द्रव्य चक्षु से प्रयोजन है।)
शा--जिसके द्वारा देखा जाए वह दर्शन है। इस प्रकार लक्षण करने पर ज्ञान और दर्शन में कोई विशेषता नहीं रहती है ?
समाधान नहीं, क्योंकि अन्तर्मुख चित्प्रकाश दर्शन है और बहिर्मुख चित्प्रकाश ज्ञान है, इसलिए इन दोनों के एक होने में विरोध आता है।
शङ्का--वह चैतन्य क्या वस्तु है ?
समाधान--त्रिकाल विषयक अनन्त पर्याग रूप जीव के स्वरूप का अपने-अपने क्षयोपशम के अनुसार जो संवेदन होता है, वह चैतन्य है। अतः सामान्य-विशेषात्मक बाह्यपदार्थ को ग्रहण करने वाला ज्ञान और सामान्य-विद्योषात्मक प्रात्मस्वरूप को ग्रहण करने वाला दर्शन है ।
अथवा पालोकनवृत्ति दर्शन है । इसका अभिप्राय यह है—जो अवलोकन करता है वह पालोकन या प्रात्मा है । वर्तन (व्यापार) नुत्ति है । पालोकन (आत्मा) की वृत्ति 'पालोकन बृत्ति' है । बहु स्वसंवेदन है, उसी को दर्शन कहते हैं । अथवा प्रकाशवृत्ति दर्शन है। इसका अभिप्रायप्रकाश ज्ञान है । उसके लिए प्रात्मा की बत्ति 'प्रकाशवृत्ति' है वही दर्शन है। अथवा विषय और विषयी के संपात से पूर्व अवस्था दर्शन है।'
लेश्या--जो लिम्पन करती है वह लेश्या है। भूमिलेपिका के साथ अतिव्याप्ति दोष भी नहीं पाता है, क्योंकि "कर्मों से आत्मा को" इतने अध्याहार की अपेक्षा है। अर्थात जो कर्मों से प्रात्मा को लिप्त करती है वह लेश्या है ।'' अथवा कपाय से अनुरंजित मन-वचन-कायरूप योग को प्रवृत्ति १. संयमन संयमः (ध. पु. १ पृ. १४४)। २. घ. पु. १ पृ.१४४ । ३. "दृश्यतेऽनेनेति दर्शनम्" (प. पु. १ पृ. १४५) ४. ध. पु. १ पृ. १४५। ५. "तत: सामान्यविशेषात्मकबाह्यार्थग्रहणं जान • तदात्मकस्वरूपग्रहरणं दर्शनमिति सिद्ध" (ध. पु. १ पृ. १४७)। ६. "मालोकनवृत्तिा दर्शनम् । प्रस्य गमनिका, पालोकत इत्यालोकनमात्मा, वर्तन वृत्तिः; मालोकनस्य वृत्तिरालोकनवृत्तिः स्वसंवेदनं तद्दर्शन मिति लक्ष्यनिर्देशः ।" [ध. पु. १ पृ. १४८-१४६] । ७. प्रकाशवृत्तिा दर्शनम् । अस्य गमनिका प्रकाशो ज्ञानम् तदर्थमात्मनोवृत्ति: प्रकाशवृत्तिः प्रकाशवृत्तिस्तदर्शनम् ।" (ध. पु. १ पृ. १४६) । ८. "विषयविषयिसंपातात् पूर्वावस्था दर्शनमित्यर्थ:" (ध, पु. १ पृ. १४६) । १. लिम्पतीति लेश्मा। न भूमिले पिकवाऽतिव्याप्तिदोषः कर्मभिरा मानमित्यध्याहारापेक्षित्वात्" (घ. पु. १ पृ. १४६) । १०. प. पु. ७ पृ. ७ व पु. ८ पृ. ३५६ ।