Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
View full book text
________________
गाथा १४२
मार्गणा/१६३
___ समाधान - ऐसा नहीं है, क्योंकि सम्यग्दृष्टि और मिथ्याष्टियों के प्रकाश में समानता पाई जाती है। - शङ्का यदि दोनों के प्रकाश में समानता है तो फिर मिथ्यादृष्टि जीव अज्ञानी कैसे हो सकते हैं ?
समाधान---यह शंका ठीक नहीं है, क्योंकि मिथ्यात्वकर्मोदय से वस्तु के प्रतिभासित होने पर भी संशय, विपर्यय और अनध्यवसाय को निवृत्ति नहीं होने से मिध्यादृष्टियों को अज्ञानी कहा है।
शङ्खा--ऐसा होने पर तो दर्शनोपयोग की अवस्था में ज्ञान का प्रभाव प्राप्त हो जाएगा?
समाधान--यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि दर्शनोपयोग को अवस्था में ज्ञानोपयोग का प्रभाव इष्ट ही है।
शा---यदि ऐसा मान लिया जाए तो इस कथन का कालानुयोग में आये हुए 'एग-जीवं पाच्च प्रणाविभो अपज्जवसिदों' इत्यादि सूत्र के साथ विरोध क्यों नहीं प्राप्त होमा ? अर्थात् एक जोब की अपेक्षा मत्यज्ञान व श्रुताज्ञान का काल अनादि-अनन्त है, इस सूत्र से विरोध क्यों नहीं
आएगा?'
___ समाधान-ऐसी शङ्का करना ठीक नहीं है, क्योंकि कालानुगम में जो ज्ञान की अपेक्षा कथन किया है वहीं क्षयोपशम की प्रधानता है।
शङ्का-मिथ्याज्ञान सत्यार्थ का प्रकाशक कसे हो सकता है ?
समाधान-ऐसी शङ्का ठीक नहीं है, क्योंकि चन्द्रमा में पाये जाने वाले द्वित्व का दूसरे इ. पदार्थों में सत्व पाया जाता है। इसलिए उस ज्ञान में भूतार्थता बन जाती है।
EMA
__ अथवा सद्भाव का निश्चय करने वाला शान है। इससे संशय, विपर्यय और अनध्यवसाय अवस्था में ज्ञान का अभाव प्रतिपादित हो जाता है, क्योंकि शुद्धनय की विवक्षा में तत्त्वार्थ का उपलम्भ करने वाला ज्ञान है। इससे यह सिद्ध हो गया कि मिथ्याष्टि ज्ञानी नहीं है। जिसके द्वारा द्रव्य, गुरण व पर्यायों को जानते हैं, वह ज्ञान है ।
शङ्का-ज्ञान तो प्रात्मा से अभिन्न है, इसलिए वह पदार्थों को जानने के प्रति साधकतम कारण कैसे हो सकता है? .
समाधान-ऐसा कहना ठीक नहीं है, क्योंकि साधकतम कारण स्वरूप ज्ञान को प्रात्मा से सर्वथा भिन्न अथवा अभिन्न मान लेने पर प्रात्मा के स्वरूप की हानि का प्रसंग पाता है और कथंचित :भेदरूप ज्ञान को जाननक्रिया के प्रति साधकतम कारण मान लेने में कोई विरोध नहीं पाता है।
3
.. १. घ. पु. १ पृ. १४२ ।
4. पु. १ पृ. १४३)।
२. घ. पु. १ पृ. १४३ । ३, "अथवा सद्भावविनिश्चयोपसम्भक ज्ञानम्" ४. "द्रव्ययणपर्यायानेन जानातीप्ति ज्ञानम् ।" (घ. पु. १ पृ. १४३) ।