Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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गाथा १४२
मार्गणा/१६१
समाधान -ऐसा कहना ठीक नहीं है, क्योंकि इस गाथासूत्र में प्रत्येक पद के साथ जो सप्तमी विभक्ति का निर्देश है वह देशामर्शक है, इसलिए तृतीया विभक्ति का भी ग्रहण हो जाता है ।।
शङ्कर--इस गाथा सूत्र में मृगयिता, मृग्य और मार्गणोपाय इन तीन को छोड़कर केवल मार्गणा का ही उपदेश क्यों दिया गया है ?
समाधान-यह मानकीक नहीं है. क्योंकि निमामि : नादचक पद देशामर्शक है । अथवा मार्गमा पद शेष तीनों का अविनाभावी है, इसलिए केवल मार्गणा कथन करने से शेष तीनों का कथन हो जाता है ।
गति--जो प्राप्त की जाये, वह गति है। । गति का ऐसा लक्षण करने से सिद्धों के साथ अतिव्याप्ति दोष भी नहीं पाता, क्योंकि सिद्धों के द्वारा प्राप्त करने योग्य गुणों का अभाव है। यदि केवलज्ञानादि गुणों को प्राप्त करने योग्य कहा जावे सो भी कथन नहीं बन सकता, क्योंकि केवलज्ञानस्वरूप एक प्रात्मा में प्राप्य-प्रापक भाव का विरोध है। उपाधिजन्य होने से कषायादिक भावों को ही प्राप्त करने योग्य कहा जा सकता है, किन्तु वे सिद्धों में पाये नहीं जाते हैं, इसलिए सिद्धों के साथ अतिव्याप्ति दोष नहीं पाता ।
इन्द्रिय--जो प्रत्यक्ष में व्यापार करती हैं उन्हें इन्द्रियाँ कहते हैं। अक्ष इन्द्रिय को कहते है और जो अक्ष-अक्ष के प्रति विद्यमान रहता है उसको प्रत्यक्ष कहते हैं, जो कि इन्द्रियों का | विषय अथवा इन्द्रियजन्य ज्ञान पड़ता है। जो इन्द्रियविषय अथवा इन्द्रियज्ञानरूप प्रत्यक्ष में व्यापार करती हैं, वे इन्द्रियाँ हैं। वे इन्द्रियाँ स्पर्श, रस, रूप, गन्ध और शब्द नाम के ज्ञानाबरणकर्म के क्षयोपशम से और द्रव्येन्द्रियों के निमित्त से उत्पन्न होती हैं। क्षयोपशमरूप भावेन्द्रियों के होने पर ही द्रव्येन्द्रियों की उत्पत्ति होती है, इसलिए लब्धिरूप भावेन्द्रियाँ कारण हैं और द्रव्येन्द्रियों
कार्य हैं। इसीलिए द्रव्येन्द्रियों को भी इन्द्रिय यह संज्ञा प्राप्त है। अथवा उपयोगरूप भावेन्द्रियों । की उत्पत्ति द्रव्येन्द्रियों के निमित्त से होती है अतः भाबेन्द्रियाँ कार्य हैं और द्रव्ये न्द्रियाँ कारग हैं। , इसलिए भी द्रव्येन्द्रियों को इन्द्रिय यह संज्ञा प्राप्त है। यह कोई अदृष्ट कल्पना नहीं है, क्योंकि । कार्यगत धर्म के कारण में और कारणगत धर्म के कार्य में उपचार जगत् में प्रसिद्धरूप से पाया जाता है ।
काय--जो संचित किया जाता है, वह काय है। यहाँ पर जो संचित किया जाता है वह काय है ऐसी व्याप्ति बना लेने पर काय को छोड़कर ईट आदि के संचयरूप विपक्ष में भी यह ध्याप्ति घटित हो जाती है अतः व्यभिचार दोष पाता है, ऐसी शंका मन में निश्चय करके प्राचार्य कहते हैं इस प्रकार ईट आदि के संचय के साथ व्यभिचार दोष भी नहीं आता, क्योंकि 'पृथ्वी' आदि स्थावर नाम कर्मोदय व अस नाम कर्मोदय से जो संचित किया जाता है वह काय है, ऐसी व्याख्या की गई है।
१. प्र.पु. १ पृ. १३३ । २. ध.पु. १ पृ. १३४ । ३. 'गम्यत इति गतिः' (मुलाचार पर्याप्ति अधिकार पृ. २७६६ गा. १५६ टीका; अ.पु. १ पृ. १३४ । ४. ध.पु. १ पृ. १३४ । ५. “प्रत्यक्षनिरतानीन्द्रियाणि । प्रक्षागीन्द्रि"पाणि ।" (च.पु. १ पृ. १३५ । ६. प.पु. १ पृ. १३५ । ७. "चीयत इति कायाः" (ध.पु. १ पृ. १३८)। 5. प.पू. १ पृ. १३८ ।