Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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• गाथा १४१
मार्गणा/१८६
गाथार्थ--धर्मरूपी धनुष, ज्ञान-दर्शन-संयम आदि गुणरूपी प्रत्यंचा अर्थात् डोरी और चौदहमार्गणारूपी बाणों से मोहरूपी शत्रु के बल को नष्ट करने वाले जिन भगवान को नमस्कार करके विविध अवान्तर अधिकारों से युक्त मार्गरणा महाधिकार कहता हूँ ।।१४०।।
दिमाई– मन रम्प, कयोंकि पुरयग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्बारित्र की एकता ही रत्नत्रय है। कर्म मात्रुनों के प्रधान नायक मोह को रत्नत्रय के बिना नहीं जीता जा सकता 1 रत्नत्रय के द्वारा ही मोह की शक्ति क्षीण की जा सकती है अतः रत्नत्रयधर्म को धनुष की उपमा दी है, क्योंकि धनुष के द्वारा युद्ध में शत्रु के बल को नष्ट किया जाता है। धनुष में डोरी होती है, जिसको खींचकर बाण छोड़े जाते हैं। गुण का अर्थ भी डोरी होता है। प्रात्मा का लक्षण चेतनागुरण है अतः चेतनागुरण को डोरी की उपमा दी है। बागी के बिना मात्र धनुष से शत्रु का बल नष्ट नहीं किया जा सकता । जिनमें जीवतत्त्व का विशेष कथन है ऐसी चौदहमार्गरगानों के ज्ञान से श्रद्धान दृढ़ होता है और रत्नत्रय निर्मल होता है । अत: चौदहमार्गणाओं को बारण की उपमा दी है। इस प्रकार जिसने रत्नत्रय धनुष, चेतनागुण डोरी और चौदहमार्गणामों रूप बाणों के द्वारा मोहशत्रु को जीत लिया है अर्थात् रत्नत्रय के द्वारा जिसने मोह को नष्ट कर दिया है, वही वास्तविक 'जिन' है। ऐसे जिनेन्द्र भगवान को नमस्कार करके अपने रत्नत्रय की निर्मलता तथा कर्मनिर्जरा के लिए श्री नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती ने मार्गरणा महाधिकार का वर्णन करने की प्रतिज्ञा की है। इस मार्गणा महाधिकार में गति, इन्द्रिय, काय आदि चौदह अन्तर अधिकार हैं इसलिए इस अधिकार को महाधिकार की संज्ञा दी गई है।
मार्गणा का निरुक्ति-अर्थ तथा उसकी संख्या का निर्देश 'जाहि व जासु व जीवा मग्गिज्जते जहा तहा दिट्ठा । तानो चोद्दस जाणे सुयगाणे मगरणा होति ॥१४१॥
गाचार्य जीव जिन भावों के द्वारा अथवा जिन पर्यायों में खोजे जाते हैं-अनुमार्गण किये जाते हैं, उन्हें मार्गणा कहते हैं । जीबों का अन्वेषण करने वालो ऐसी मार्गणाएँ श्रुतज्ञान में चौदह कही गई हैं ।।१४।।
विशेषार्थ- मार्गणा किसे कहते हैं। सत् , संख्या आदि अनुयोगद्वारों से युक्त चौदह जीवसमास जिसमें या जिसके द्वारा खोजे जाते हैं, उसे मार्गणा कहते हैं। जिसके द्वारा या जिसमें जीव खोजे जाते हैं या विचार किये जाते हैं, वह मार्गणा है और उसके १४ भेद हैं 13 जैसा श्रुतज्ञान या प्रवचन में कहा गया है हे भव्य ! वैसा जानना चाहिए। गुणस्थाम, जीवसमास, पर्याप्ति, प्राण व संज्ञा प्ररूपणामों के द्वारा जीव का संक्षेप से विचार होकर अब गति, इन्द्रिय प्रादि मार्गरसानों के द्वारा विस्तार से पांच भावों से युक्त जीव का विचार किया जाएगा । गति, इन्द्रिय आदि पाँच भावों
१. यह गाथा घ. पु. १ पृ. १३२, प्रा. पं. सं. पृ. १२ गा. ५६, पृ. ७४ गा. ४५ पर भी है, किन्तु 'सुयणारखे' के स्थान पर 'सुदगगाणे' पाट दिया है । २. चतुर्दपाजीवसमासाः सदादिविशिष्टा: मार्यन्तेऽस्मिन्म नेन वेति मार्गणम् (ध, यु. १ पृ. १३६) ३. याभिर्यासु वा जीवाः मृग्यन्ते विचार्यन्ते ताश्चतुर्दशमार्गणा भवन्तीति । (श्रीमदभयचन्द्रसूरि कृत टीका)।