Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
View full book text
________________
माथा १३८-१३९
परिग्रहसंज्ञा का लक्षा व कारण 'उवयरणदंसणेण य तस्सुवजोगेरण सुच्छिदाए य । लोहस्सुदीरणाए परिग्गहे जापदे
सा ।।१३८ ।
गायार्थ - उपकरणों को देखने से, उनका उपयोग करने से, उनमें मुर्च्छाभाव रखने लोभकपाय कर्म को उदीरणा से मैथुनसंज्ञा उत्पन्न होती है ॥ १३८ ॥
-
संज्ञा / १८७
विशेषार्थ - बाह्यपदार्थों के निमित्त से जो लोभ होता है वह परिग्रहसंज्ञा है । 2 मृदु शय्या, सुन्दर भोजन, सुगन्धित पुष्प, रूपवती स्त्री, सुवर्णादि इन्द्रियों के भोग के साधनभूत उपकरणों के देखने से, उनका स्मरण करने से, उनमें ममत्वभाव रखने से इन बाह्य कारणों से तथा अन्तरंग में लोभकषाय को विशेष उदीरणा से परिग्रहसंज्ञा उत्पन्न होती है ।
अप्रमत्तगुणस्थान में संज्ञा का अस्तित्व
पट्टमदर बढमा सग्ला खहि कारणाभावः । सेसा कम्मत्थितेणुवयारेस्थि रंग हि कज्जे ॥ १३६ ॥
तथा
गाथार्थ - जिनका प्रमाद नष्ट हो गया है अर्थात् अप्रमत्त गुणस्थान में प्रथम (आहार) संज्ञा नहीं है, क्योंकि वहाँ पर कारण का प्रभाव हो गया है। शेष तीन संज्ञाएँ उपचार से हैं, क्योंकि उनके कारणस्वरूप कर्म का उदय यहाँ पाया जाता है, किन्तु वे संज्ञाएँ कार्यरूप परिणत नहीं होतीं ।। १३६ ।।
विशेषार्थ - - मिथ्यादृष्टि प्रथमगुणस्थान से प्रमत्तसंयत गुणस्थान तक आहार-भय-मंथुनपरिग्रह ये चारों संज्ञाएँ होती हैं । श्रप्रमत्तगुणस्थान में प्रथम संज्ञा अर्थात् प्रहारसंज्ञा नहीं होती, क्योंकि आहारसंज्ञा का अन्तरङ्ग कारण असातावेदनीय कर्म की उदीरणा का प्रभाव हो गया है । सातावेदनीय असातावेदनीय कथा श्रयुकर्म की उदीरणा प्रमत्तगुणस्थान तक ही होती है । श्रप्रमत्तसंयतादि गुणस्थानों में वेदनीय व श्रायुकर्म की उदीरणा का अभाव हो जाता है । श्रप्रमत्तसंयत गुणस्थान में भय-मैथुन व परिग्रह संज्ञा होती हैं, क्योंकि उनके कारण नोकपाय भयकर्म वेदकर्म व arrer at rateur पाई जाती है। अपूर्वकरण पाठवे गुणस्थान भयकर्म की उदीरणाव्युच्छित्ति हो जाने से निवृत्तिकरण ( नौवें ) गुणस्थान में भय संज्ञा नहीं है। नौवें गुणस्थान के श्रवेदभाग में बेदकर्म की उदीरणा नहीं होती अतः वहाँ पर मैथुन संज्ञा भी नहीं होती । उपशान्तमोह श्रदि गुणस्थानों में लोभकषाय की उदीरणा का अभाव हो जाने से परिग्रहसंज्ञा का भी अभाव हो जाता है । अप्रमत्तादि गुणस्थानों में कर्मोदीरणा निमित्त कारण के सदभाव से उन संज्ञाओं का aftara उपचार मात्र से कहा गया है, किन्तु वहाँ उनका कार्य शरण, रतिक्रीड़ा व परिग्रह की वांछा नहीं होती । कर्मों का मन्द मन्दतर व मन्दतम अतिसूक्ष्म अनुभागोदय होने से तथा विशेष संयम महित होने से ध्यानयुक्त महामुनियों के मुख्यरूप से भय आदि संज्ञाएँ नहीं होतीं, अन्यथा
१. प्रा. पं. सं. पृ. ५७४ गा. ४४ तथा पृ. १२ गा. ५५ १ पू. ४१३) । ३. श्रीमदभचन्द्रसूरि सिद्धान्तचक्रवर्ती कृत टीका ।
२. श्रालीढबाह्यार्थ लोभतः परिग्रहसंज्ञा (६ पु. २