Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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गाथा १३४-१३५
संज्ञा/१८५.
५. संज्ञा-प्ररूपणाधिकार
संज्ञा का लक्षण व भेद 'इह जाहि बाहिया वि य जीवा पायंति दारुणं दुक्खं । सेवंताधि य उभये तानो चत्तारि सणाप्रो ॥१३४॥
गाथार्थ-जिनसे बाधित होकर जीव इस लोक में दारुण दुःख प्राप्त करते हैं और जिनका । सेवन करने पर भी जीव दोनों ही भवों में दारुण दुःख को प्राप्त होते हैं वे चार संज्ञाएँ हैं ।। १३४।।
विशेषार्थ आहारादि की वांछा से बाधित होकर, संक्लेशित होकर, पीड़ित होकर जीव इस । भव में दारुण अर्थात् तीन दुःख पाता है। वांछित पदार्थ का सेवन करने से जीव इस भव में । और परभव में अर्थात् दोनों भवों में तीव दुःखों को प्राप्त होता है। ये संसार (बाछाएँ) चार . है-पाहारसंज्ञा, भयसंज्ञा, मैथुनसंज्ञा और परिग्रहसंज्ञा । यहाँ वांछा को संज्ञा कहा गया है। वांछा
ही इस लोक और परलोक में महान् दुःख का कारण है।
शाहारसंज्ञा' का लक्षण ब कारण 'आहारदसणेण य तस्सुबजोगेण प्रोमकोठाए । सादिवरुदीरणाए हववि है प्राहारसण्णा हु ॥१३॥
गाथार्थ-ग्राहार देखने से, उसके उपयोग से, कोठे (पेट) खाली होने से और साता-इतर . अर्थात् असातावेदनीय कर्म की उदीरणा होने से आहारसंज्ञा होती है ॥१३५।।
विशेषार्थ-आहार के विषय में जो तृष्णा या आकांक्षा होती है वह आहारसंज्ञा है। यह आहारसंज्ञा अन्तरंग और बहिरंग कारण मिलने पर उत्पन्न होती है। इसमें अन्तरंग कारण सातावेदनोय कर्म के प्रतिपक्षी असातावेदनीयकर्म का तीन उदय व उदीरणा है। बहिरंग कारण१. उदररूपी कोठे का रिक्त होना, क्योंकि जब पेट खाली होता है तब भूख लगती है और भोजन की बांछा होती है। २. नाना प्रकार के रसयुक्त सुन्दर भोजन-पानादि को देखने से उसकी वांछा होती है । ३. पूर्व में मुक्त सुन्दर-सुस्वादु पाहार प्रादि की स्मृतिरूप उपयोग होने से प्राहारसंशा उत्पन्न होती है।५
१. प्रा. पं. सं. (भारतीय ज्ञानपीठ) पृ. ११ गा. ५१ प्र. १ पृ. ५७४ गा. ४०, किन्तु वहाँ 'वाहिया' के स्थान पर हाघिदा' पाठ है। २. मण्ण च उठिबहा आहार-भय-मेहुण-परिगह्मण्ण चेदि ।" (ध. पु. २ पृ. ४१३) । १. प्रा. पं. सं. पृ. ११ मा. ५२; पृ. ५७४ गा. ४१, किन्तु कुछ पार भेद है। ४. "ग्राहारे या तृष्णा कांक्षा साहार सज्ञा ।" (ध. पु. २ पृ. ४१४)। ५. श्रीमदभय चन्द्रसूरि कृत टीका ।