Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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गाथा १३२-१३३
प्रागा / १८३
में नवल और संजी पर्यातक जीवों में मनोबल प्रारण भी होते हैं ।। १३२ ।। संजी पंचेन्द्रिय पर्याप्त जीवों में दस प्राण होते हैं और शेष पर्याप्तजीवों में एक-एक प्रारण कम होता गया है, अन्त में दो प्राण कम होते हैं । अपर्याप्तकों के दो जीवसमासों में सात-सात प्राण हैं. शेप में एक-एक कम है ॥ १३३ ॥
विशेषार्थ गाथा १२० में कहे गये दसप्रारण संज्ञीपर्याप्तकों के होते हैं । ग्रानपान, बचनबल और मनोबल इन तीन प्रागों के बिना शेष सातप्रागा संज्ञी-पंचेन्द्रिय-पर्याप्तकों के होते हैं। दस प्राणों में से मनोबल के बिना शेष नौ प्रास असंज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्तकों के होते हैं और अपर्याप्त अवस्था को प्राप्त इन्हीं जीवों के वचनवल तथा आनपान प्राणों के विना शेष सातप्राण होते हैं । प्रसंज्ञीपंचेन्द्रिय पर्याप्त केनोप्राणों में से श्रोत्रिय प्रारण को कम कर देने पर शेष पाठ प्राण चतुरिन्द्रिय पर्याप्तजीवों के होते हैं । इन्हीं चतुरिन्द्रिय अपर्याप्तजीवों के अनशन और वचनबल के बिना शेष छह प्राण होते हैं । चतुरिन्द्रियपर्याप्त जीवों के पाठ प्राणों में से चक्षुरिन्द्रिय कम कर देने से शेष सात प्राण त्रीन्द्रिय पर्याप्त जीवों के होते हैं। इन सात प्राणों में से प्रानपान और वचनबलप्राण कम कर देने पर शेष पाँच प्राण त्रीन्द्रिय अपर्याप्तकों के होते हैं । त्रीन्द्रिय पर्याप्तकों के सातप्राणों में से घ्राणेन्द्रिय कम कर देने पर शेष छह प्राण हीन्द्रियपर्यातकों के होते हैं । उन छह प्रारणों में से प्रानपान और बचनबल कम कर देने पर शेष चारप्राण हीन्द्रिय अपर्याप्तकों के होते हैं । द्वीन्द्रिय पर्याप्तकों के प्राणों में से रमनेन्द्रियप्रारण और वचनवल इन दो प्राणों को कम कर देने पर शेष चारप्राण एकेन्द्रिय-पर्यातकों के होते हैं। उन चार में से ग्रानपान प्राण कम कर देने से शेष तीन प्राण एकेन्द्रिय पर्यातकों के होते हैं । '
प्राकृतपञ्चसंग्रह में पू. १० पर इन गाथाओंों में उक्त विषय और भी स्पष्ट किया गया है
उस्सासो पज्जत्ते ससि काय - इंदियाऊरिण । वचि पज्जत्ततसाणं चित्तवलं सज्जिते ॥४७॥ दसणं पारणा सेसे गृणंतिमस्स ने ऊरणा । पज्ञत्तेसु दरेसु अ सत्त दुए सेसा ||४८ || पुणे सfor सव्वे मणरहिया होंति ते दु इयरम्मि । सोदविघारण जिन्भारहिया सिगिंदभारा ॥ ४६ ॥ पंचख पारणा मरण वचि उस्सास ऊणिया सव्वे । करण विगंधरसणारहिया सेसेसु ते अपुष्णेसु ||५० ||
एइंदियादिपज्जत् ४ / ६ / ७/८ /६/१० । सर्पिण पचिदियादि - अपज्जत्तेसु । ७ / ७ /६/५/४ / ३ |
उपर्युक्त गाथाओं में क्षोगावपाय बारहवें गुणस्थान तक के जीवों के प्राणों का कथन किया गया है, अब सयोगोजिन और अयोगोजिन के प्राणों का विचार किया जाता है।
सयोगी जिन के पाँच भावेन्द्रियाँ और भावमन नहीं रहता है, अतः इन छह के बिना चारप्राण पाये जाते हैं तथा केबलीसमुद्घात की अपर्याप्तावस्था में वचनबल और श्वासोच्छ्वास का अभाव
१. ध. पु. २. ४१८१