Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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१८२, गो. सा. जीवकाण्ड
पाथा १३१-१३३
उत्पन्न हुए क्षयोपशम की और खल रसभाग की निमित्तभूत शक्ति के कारण पुद्गल प्रचय की एकता नहीं पाई जाती। इसी प्रकार उच्छ्वास-निःश्वास प्रारण कार्य है जो प्रात्मोपादानकारगक होता है। उच्छ्वास निःश्वास पर्याप्ति कारण है और पुद्गलोपादान निमित्तक है, प्रतएव इन दोनों में भेद समझ लेना चाहिए।
___ द्रव्य और भावप्राणों की उत्पत्ति की सामग्री वीरियजुवमदिखउवसमुत्था पोइंदियेंदियेसु बला ।
देहुदये कायारणा वचीबला प्राउ पाउदये ॥१३१॥ गाथार्थ ---वीर्यान्तराय कर्मसहित मतिज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम से इन्द्रियप्रारण और नोइन्द्रिय (मन) बल प्रारण उत्पन्न होने हैं । शरीर नामकर्मोदय से कायबल, पानप्राण, बचनबलप्रारण एवं पायुकर्मोदय से आयुप्राण उत्पन्न होते हैं ॥१३१॥
विशेषार्थ-मतिज्ञानावरण के क्षयोपशम के साथ-साथ वीर्यान्तराय कर्म का क्षयोपशम होने पर नोइन्द्रिय (मन) व इन्द्रियों में बल आ जाना है अर्थात् अपने-अपने विषय को ग्रहण करने को शक्तिरूप लब्धि नामक भावेन्द्रिय उत्पन्न हो जाती है । इस प्रकार इन दो कर्मों के क्षयोपशम से पांच इन्द्रियप्राण द मनोबलप्रारण ये छहप्रारण उत्पन्न होते हैं। शरीर नाम कर्मोदय से शरीर में चेष्टा करने की शक्तिरूप काय बल नामक सातवाँ प्राण उत्पन्न होता है। उनछ्वाम-निःश्वास नामकर्म के उदय से सहित शरीर नामकर्मोदय होने पर उनछ्वास-निःश्वासरूप प्रवृत्ति करने में कारण ऐसी शक्ति रूप पानप्रारण नामक पाठवा प्राग होता है। स्वरनामकर्मोदय सहित शरीर नामकर्म का उदय होने से वचन व्यापार में कारण ऐसी शक्ति विशेषरूप वचनबल नामक नयाँ प्राण होता है। आयुकर्मोदय से नारक आदि (नरवा-तियंच-मनुष्य-देव) पर्यायरूप भव धारण की शक्तिरूप प्रायु नामक दसवां प्राण उत्पन्न होता है। छहों पर्याप्तियाँ मात्र एक पर्याप्ति नामकर्मोदय से निष्पन्न होती हैं, उस प्रकार किसी एक कर्मोदय से दसों प्राण उत्पन्न नहीं होते हैं, क्योंकि 'प्राण' नामक कर्मप्रकृति नहीं है, किन्तु भिन्न-भिन्न कर्मों के कारण भिन्न-भिन्न प्रारण उत्पन्न होते हैं, यही शान इस गाथा के द्वारा कराया गया है।
प्राणों के स्वामी 'इंदियकायाऊरिण य पुण्णापुण्णेसु पुण्णगे पारणा ।
बीइंदियादिपुण्णे वचीमणो सपिपुण्णेव ॥१३२॥ 'दस सण्णोणं पारणा सेसेगणंतिमस्स वे ऊरणा ।
पज्जत्तेसिदरेसु य सत्त दुगे सेसगेगूणा ॥१३३॥ गाथार्थ- इन्द्रिय, कायबल और ग्रायु ये तीन प्राण पर्याप्त जीवों में भी होते हैं तथा अपर्याप्त जीवों में भी होते हैं, किन्तु पर्याप्त जीवों में पानपान प्राण भी होता है। द्वीन्द्रियादि पर्याप्त जीवों
१. प्र. पु. २ पृ. ४१२-१३ 1 २. सिद्धान्तचक्रवती श्रीनदभय चन्द्रसूरि कृत टीका । ३. घ. पु. २ पृ. ४१८ पर इस गाथा सम्बन्धी विषय दिया गया है । ४. मह गाथा घ. पु. २ पृ. ४१८ पर भी है।