Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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१८०/गो. सा. जीबकाण्ड
माथा १२६
द्रव्येन्द्रिय प्रादि द्रव्यप्राण है तथा क्षायांपशामक भावन्द्रियादि भावप्राण हैं।' अभ्यन्तर प्राण-इन्द्रियावरण (मतिज्ञानावरण) कर्म का क्षयोपशम प्रादि। बाह्यप्राण-अभ्यन्तरप्राणों का कार्य जैसे आँखों का खोलना, बन्द करना आदि इन्द्रिय व्यापार, कायचेष्टा, वचनव्यापार, उच्छ्वास-निःश्वासरूप प्रवृत्ति इत्यादि ।
शङ्का-पर्याप्ति और प्राण में क्या भेद है?
समाधान- नहीं, वपोंकि इनमें हिमवान और विन्ध्याचल पर्वत के समान भेद पाया जाता है। आहार, शरीर, इन्द्रिय, पानपान, भाषा और मनरूप प्रक्तियों की पूर्णता पर्याप्ति हैं और जिनके द्वारा प्रात्मा जीवन संज्ञा को प्राप्त होता है, वे प्राण हैं। यही इन दोनों में भेद है।
शङ्का पाँचों इन्द्रियाँ, आयु और कायबल ये प्राणसंज्ञा को प्राप्त हो सकते हैं, क्योंकि वे जन्म से लेकर मरण तक भव को धारण करने रूप से पाये जाते हैं और उनमें से किसी एक का अभाव होने पर मरण भी देखा जाता है, परन्तु उच्छ्वास, मनोबल और वचनबल इनको प्राणसंज्ञा नहीं दी जा सकती, क्योंकि इनके बिना भी अपर्याप्त अवस्था में जीवन पाया जाता है ।
समाधान नहीं, क्योंकि उच्छवास, मनोबल और वचनवल के बिना अपर्याप्तावस्था के पश्चात् पर्याप्तावस्था में जीवन नहीं पाया जाता है इसलिए उन्हें प्राण मानने में कोई विरोध नहीं प्राता।
शङ्का–पर्याप्ति और प्राण के नाम मात्र में विवाद है, वस्तुतः कोई विवाद नहीं है ?
समाधान नहीं, क्योंकि कार्य और कारण के भेद से उन दोनों में भेद पाया जाता है तथा पर्याप्तियों में आयु का सद्भाव नहीं होने से, मनोबल-वचनबल-उच्छ्वासरूप प्राणों के अपर्याप्तावस्था में नहीं पाये जाने से पर्याप्ति और प्राण में भेद समझना चाहिए ।
शङ्का- वे पर्याप्तियाँ भी अपर्याप्तकाल में नहीं पाई जाती हैं, इसलिए अपर्याप्तकाल में उनका सद्भाव नहीं रहेगा।
समाधान नहीं, क्योंकि अपर्याप्तकाल में अपर्याप्तरूप से उनका सद्भाव पाया जाता है । शङ्का---'अपर्याप्तरूप' इसका क्या तात्पर्य है ?
समाघान--पर्याप्तियों की अर्धनिष्पत्ति (अपूर्णता) अपर्याप्ति है । इसलिए पर्याप्ति, अपर्याप्ति और प्राए में भेद सिद्ध हो जाता है। अथवा इन्द्रियादि में विद्यमान जीवन के कारणपने की अपेक्षा न करके इन्द्रियादिरूप शक्ति की पूर्णतामात्र को पर्याप्ति कहते हैं और जो जीवन के कारण हैं वे
१. द्रव्येन्द्रियेन्द्रियादिद्रव्यप्राणा, भावेन्द्रियादि-भायोपामिफभाषप्राणाः । (बृहद्रव्यसंग्रह गा. ३ की टीका)। २. "वाप्राणैः अभ्यन्तरपारणकार्यनयनोन्मीलनादीन्द्रियव्यापारकायचेष्टावान्यापारोच्छ्वास निःश्वासप्रवृत्तिरूपर्जीवाः । प्राणति जीवंति तथा अभ्यन्तरः इन्द्रियावरणक्षयोपशमादिभिः यीवाः जीवंति" (श्री अभयचन्द्रसूरिकृत टीका)। ३. घ. पु १ पृ. २५६-५७ ।