Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
View full book text
________________
मिं
गाथा १२९
प्राण / १७६
हैं। वेदना के प्रतिकार को प्रवीचार कहते हैं । उस वेदना का अभाव होने से नववेक से लेकर ऊपर के सभी देव प्रवीचार रहित हैं, अतः निरन्तर सुखी हैं । "
सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थान में देव नियम से पर्याप्तक होते हैं। नव अनुदिशों में और विजय, वैजयन्त, जयन्त, अपराजित और सर्वार्थसिद्धि इन पाँचों अनुत्तर विमानों में रहने वाले देव असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान में पर्याप्त भी होते हैं और अपर्याप्त भी होते हैं । "
इसप्रकार गोम्मटसार जीवकाण्ड में पर्याप्ति प्ररूपणा नामक तीसरा अधिकार पूर्ण हुआ।
४. प्राणप्ररूपणाधिकार
प्राण का निरुक्तिपूर्वक लक्षण
* बाहिर जहा तव प्रभंतहि पाणेहिं । पारति जेहि जीवा, पाणा ते होंति रिगद्दिट्ठा ॥ १२९ ॥
गाथार्थ - जिस प्रकार बहिरंग परिणामों के द्वारा जीव जीता है उसी प्रकार जिन अभ्यन्तर प्राणों के द्वारा जीव जीता है वे प्राण हैं। ऐसा कहा गया है ।। १२६ ।।
विशेषार्थ - इस गाथा में प्रारण का लक्षण कहा गया है। जिनके द्वारा श्रात्मा जीवन संज्ञा को प्राप्त होता है वे प्राथ हैं ।" जिनके द्वारा जीव जीता है वे प्राण हैं। जिनके संयोग से जीव जन्म लेता है और वियोग से मरण को प्राप्त होता है, वे प्राण हैं । " जिनके द्वारा जीव जीते हैं अथवा जीवित के व्यवहार योग्य होते हैं, वे प्रारण हैं।
प्राण दो प्रकार के हैं - बाह्यप्राण अर्थात् द्रव्यप्राण और अभ्यन्तरप्राण अर्थात् भावप्राण |
६. ष. पु. १ पृ. ३३८-३३६ । २. सम्मामिच्छादि का रिशयमा पज्जत्ता ॥ ६६॥" (ध. पु. १ पृ. ३३६) । ३. श्रणुदि श्रणुत्तर विजय षड्जयंत जयंताबराजित सम्यसिद्धि विमाणवासिय देवा असंजद-सम्माइलि ठाणे सिया पज्जता सिया थपज्जता ॥ १०० ॥" (ध. पु. १ पृ. ३३६) । ४. यह गाथा प. पु. १ पृ. २५६ पर गा. १४१ और प्रा. पं. सं. पृ. १० गा. ४५ है, किन्तु 'पाणंति' के स्थान पर 'जीवंति' और "शिविट्ठा के स्थान पर 'बोहब्बा' पाठ है । ५. प्राणिति एमिरात्मेति प्राणा: । ( ष. पु. १ पृ. २५६ )। ६. प्राणिति जीवति एभिरिति प्राणा: । (ध.पु. २. ४९२ ) । ७. "जेसि जोए जम्मदि मरदि विभोगम्म ते वि दह पारणा ॥१३६ ।। " येषां जोए संयोगे जम्मदि जीवो जायते उत्पद्यते येषां वियोगे सति जीवो ब्रियते जीवितब्य रहितो भवति तेऽपि दशप्राणाः कथ्यन्ते" (स्वा.का. अनु. पू. ७७ ) । ६. जीवति जीववद् व्यवहार योग्या भवति ते प्राणाः । (श्री अभयचन्द्रसूरि कृत टीका ) |