Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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१८६/गो. सा. जीवकाण्ड
गाथा १३६-१३७
भयसंज्ञा का लक्षण व कारण 'अइभीमदसणेग य तस्सुवजोगेण प्रोमसत्तीए । भयकम्मुदीरणाए भयसण्णा जायवे चहिं ॥१३६॥
गाथार्थ-अति भयानक रूपादि के देखने, उसकी ओर उपयोग करने, शक्ति की हीनता और भयकर्म पी जीरा रूप धारद रखों नरसंज्ञा उरणार होती है ।। १३६॥
विशेषार्थ-भयसंज्ञा भवरूप है ।। १. तीन भयंकररूप-बेष-क्रियादि तथा ऋर पशु सिंह सर्यादि के अवलोकन से । २. भयंकर डाकू, व्याघ, सिंह, सीदि की स्मृति से। ३. मनोबल की हीनता से। इसप्रकार इन तीन बहिरंग कारणों से और भय नोकषाय कर्म की उदीरणारूप अन्तरंग कारण मे भयसंज्ञा उत्पन्न होती है। भय के कारण भागने की अथवा शरणस्थान की खोज करने की इच्छा होतो है । शक्तिहोन जीव जब अपने से अधिक बलशाली व हानिकारक पदार्थ को देखता है तो वह उससे डरकर शरण लेने की इच्छा करता है तथा शरण्य स्थान की खोज में भागता है।
मैथुनसंज्ञा का लक्षरण य कारण 'परिणदरसभोयरोण य तस्सुवजोगेण कुसीलसेवाए।
वेदस्सुदीरणाए मेहुणसण्णा हवदि एवं ॥१३७॥ गाथार्थ- गरिष्ठ रस युक्त भोजन करने से, पूर्वभुक्तविषयों का ध्यान करने से, कुशील का सेवन करने से और वेद कर्म की उदीरणा से मैथुनसंज्ञा उत्पन्न होती है ।।१३७।।
विशेषार्थ-तीनों वेदों के सामान्य उदय के निमित्त से मैथुनसंज्ञा उत्पन्न होती है। तीनों वेदों का भेद न करके सामान्य नेद कर्म के तीव्र उदयरूप उदीरणा के कारण मैथुनसंज्ञा होती है। तीनों वेद कर्मों में से किसी भी एक की उदीरणा से मथुन संज्ञा उत्पन्न होती है। यह अन्तरंग कारण है। कामोत्पादक गरिष्ठ व स्वादिष्ट भोजन करने से, पूर्व में भोगे हुए विषयों को याद करने से, कृशीलसेवन से, कुशील (विट) पुरुषों की संगति से, कुशोल काव्य व कथादि सुनने से, कुशील नाटकसिनेमान्टेलीविजन व चित्र आदि के देखने से अर्थात् इन बहिरंग कारणों से मैथुन संज्ञा अर्थात् रतिक्रीड़ा करने की वांछा उत्पन्न होती है।६ स्त्रियों की रागकथा सुनना, स्त्रियों के मनोहर अङ्गों को देखना, पूर्व में भोगे हुए भोगों को स्मरण करना, पौष्टिक भोजन करना, अपने शरीर का संस्कार प्रादि करना इन कारणों से भी मैयुनसंज्ञा होती है। अतः इनका त्याग करना चाहिए।
१. कुछ अशर-भेद के साथ प्रा. पं. सं. पृ. ११ गा. ५३; पृ. ५५४ गा. ४२ है। २. "भयसंज्ञा मयामिका" (घ. पु. २ पृ. ४१४)। ३. सिद्धान्त चक्रवर्ती श्रीमद् प्रमय चन्द्रसूरि कु.त टीका । ४. प्रा. पं. सं. (भारनीय ज्ञानपीठ) पृ. १२ मा. ५६; पृ. ५७४ गा. ४३। ५. "वेदत्रयोदयसामान्पनिबन्यनं मैथुनसंजा" (. . २ पृ. ४१३।। ६. श्रीमद् प्रभवचन्द्र गिद्धान्तचक्रवती कृत टीका। ७. "स्त्री रागकथातन्मनी
मनि बागपूर्वरतागुस्मरण वृष्येप्टरसस्वशरीरसस्कारत्यागा: पञ्च' (मो, शा. प्र. ७ सू. ७) ।