Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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गुगास्थान ६३
ही प्रश्वकर्णकरण काल में प्राप्त होते हैं और जो संमारावस्था में प्राप्त होने वाले पूर्वस्पर्धकों से
मन्तगुणित हानि के द्वारा क्रमशः हीयमान स्वभाव वाले हैं, वे अपूर्वस्पर्धक हैं । यातितः उन आपकों की लामामा .-सर्व प्रक्षपक जीवों के सभी कर्मों के देशघाती स्पर्धकों
की प्रादिवर्गणा तुल्य है। सर्वघातियों में भी केवल मिथ्यात्व को छोड़कर शेष सर्वधाती कर्मों की माविवर्गणा तुल्य है, इन्हीं का नाम पूर्वस्पर्धक है। तत्पश्चात् वही प्रथमसमयवर्ती अवेदी जीव उन स्पधंकों से चारों संज्वलन कषायों के अपूर्वस्पर्धकों को करता है। [क. पा. चणिसूत्र ४६३-६४] यपि यह प्रथम समयवर्ती अवेदी क्षपक चारों ही कषायों के अपूर्वस्पर्धकों को एक साथ ही निवृत्त रता है तथापि प्रथम लोभ के अपूर्वस्पर्धक करने का विधान कहते हैं-संज्वलनलोभ के पूर्व स्पर्धकों से खान के असंख्यातवें भाग को ग्रहण कर प्रथम देशघाती स्पर्धक के नोचे अनन्तब भाग में अन्य
स्पर्धक निवृत्त किये जाते हैं । वे यद्यपि गण ना की अपेक्षा अनन्त हैं, तथापि प्रदेश गणहानिमानान्तर के स्पर्धकों के असंख्यातवे भाग का जितना प्रमाण है, उतने प्रमाण वे अपूर्वस्पर्धक होते
अर्थात् पूर्वस्पर्धकों के प्रथम (जघन्य अनुभाग वाले) देशघाती स्पर्धकों की आदिवर्गणा में जितने विभागप्रतिच्छेद होते हैं उन अविभागप्रतिच्छेदों के अनन्तवें भाग मात्र ही अविभागप्रतिच्छेद सबसे तिम अपूर्वस्पर्धक की अन्तिमवर्गणा में होते हैं । इस प्रकार से निवृत्त किये गये अपूर्वस्पर्धकों का माण प्रदेशगुणहानिस्थानान्तर के भीतर जितने स्पर्धक होते हैं, उनके असंख्यातवें भाग मात्र हमाया गया है । पूर्व स्पर्धकों को प्रादिवर्गणा एक-एक वर्गणा विशेष से हीन होती हुई जिस स्थान र दुगुण हीन होती है, वह एकप्रदेशगुणहानिस्थानान्तर है।
प्रथम समय में जो अपूर्वस्पर्धक निर्वत किये गये हैं उनमें प्रथमस्पर्धक की प्रादिवर्गणा में विभागप्रतिच्छेदाग्र अल्प हैं । द्वितीय स्पर्धक की आदिवर्गणा में अविभागप्रतिक छेदाग्र अनन्त बहुभाग मधिक हैं । द्वितीय स्पर्धक की अादिवर्गणा के अविभागप्रतिच्छेदों से तृतीय स्पर्धक की आदिवर्गणा अविभागप्रतिच्छेद कुछ कम द्वितीय भाग से अधिक हैं। तृतीय स्पर्धक की आदिवर्गणा के अविभाग स्वच्छेदों से चतुर्थस्पर्धक की आदिवर्गणा के अविभागप्रतिच्छेद कुछ कम तृतीय भाग से अधिक हैं ।
प्रकार से जब तक जघन्य परीतासंख्यातप्रमाण स्पर्धकों में अन्तिम स्पर्धक को प्रादिवर्गरणा अपने अन्तर नीचे की श्रादिवर्गणा से उत्कृष्ट संख्यातवें भाग से अधिक होकर संख्यातवें भाग वृद्धि के
को न प्राप्त हो जावें तब तक इसी प्रकार चतुर्थ पंचम आदि भाग अधिक ऋम से ले जाना चाहिए । से मागे (प्रादि से लेकर) जब तक जघन्य परीतानन्तप्रमारण स्पर्धकों में अन्तिम स्पर्धक की आदि नीशा अपने अनन्तर नीचे के स्पर्धक की प्रथमवर्गणा से उत्कृष्ट असंख्यातासंख्यातने भाग से अधिक कर असंख्यातवें भाग वृद्धि के अन्त को न प्राप्त हो जावे तब तक असंख्यातवे-भागवृद्धि का क्रम
रहता है । इसके आगे अन्तिम स्पर्धक तक अनन्तभाग वृद्धि का क्रम जानना चाहिए । * प्रथम समय में जो अपूर्वस्पर्धक निर्वनित किये गये, उनमें प्रथम स्पर्धक की आदिवर्गणा अल्प
इससे अन्तिम अपूर्वस्पर्धक की प्रादिवर्गणा अनन्तगुणी है । इससे पूर्व स्पर्धक की आदिवर्गरणा सतगुणो है । अश्व कर्णकरण के प्रथम समय में जिस प्रकार संज्वल न लोभ के अपूर्व स्पर्धकों की
३. क. पा.
कामपाहुष्ट चूणि सूत्र ४६६-६७ । २. क. पा. सृत्त पृ. ३६० ; ज. प. पु. १पू. ३३४ । अणिमूत्र ४६८-५०० ।